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समुंदर का बुलावा मीराजी  नज़्म Nazm

ये सरगोशियाँ कह रही हैं अब आओ कि बरसों से तुम को बुलाते बुलाते मिरे 

दिल पे गहरी थकन छा रही है 

कभी एक पल को कभी एक अर्सा सदाएँ सुनी हैं मगर ये अनोखी निदा आ रही है 

बुलाते बुलाते तो कोई न अब तक थका है न आइंदा शायद थकेगा 

मिरे प्यारे बच्चे मुझे तुम से कितनी मोहब्बत है देखो अगर 

यूँ किया तो 

बुरा मुझ से बढ़ कर न कोई भी होगा ख़ुदाया ख़ुदाया 

कभी एक सिसकी कभी इक तबस्सुम कभी सिर्फ़ तेवरी 

मगर ये सदाएँ तो आती रही हैं 

इन्ही से हयात-ए-दो-रोज़ा अबद से मिली है 

मगर ये अनोखी निदा जिस पे गहरी थकन छा रही है 

ये हर इक सदा को मिटाने की धमकी दिए जा रही है 

अब आँखों में जुम्बिश न चेहरे पे कोई तबस्सुम न तेवरी 

फ़क़त कान सुनते चले जा रहे हैं 

ये इक गुलिस्ताँ है हवा लहलहाती है कलियाँ चटकती हैं 

ग़ुंचे महकते हैं और फूल खिलते हैं खिल खिल के मुरझा के 

गिरते हैं इक फ़र्श-ए-मख़मल बनाते हैं जिस पर 

मिरी आरज़ूओं की परियाँ अजब आन से यूँ रवाँ हैं 

कि जैसे गुलिस्ताँ ही इक आईना है 

इसी आईने से हर इक शक्ल निखरी सँवर कर मिटी और मिट ही गई फिर न उभरी 

ये पर्बत है ख़ामोश साकिन 

कभी कोई चश्मा उबलते हुए पूछता है कि उस की चटानों के उस पार क्या है 

मगर मुझ को पर्बत का दामन ही काफ़ी है दामन में वादी है वादी में नद्दी 

है नद्दी में बहती हुई नाव ही आईना है 

इसी आईने में हर इक शक्ल निखरी मगर एक पल में जो मिटने लगी है तो 

फिर न उभरी 

ये सहरा है फैला हुआ ख़ुश्क बे-बर्ग सहरा 

बगूले यहाँ तुंद भूतों का अक्स-ए-मुजस्सम बने हैं 

मगर मैं तो दूर एक पेड़ों के झुरमुट पे अपनी निगाहें जमाए हुए हूँ 

न अब कोई सहरा न पर्बत न कोई गुलिस्ताँ 

अब आँखों में जुम्बिश न चेहरे पे कोई तबस्सुम न तेवरी 

फ़क़त एक अनोखी सदा कह रही है कि तुम को बुलाते बुलाते मिरे दिल पे 

गहरी थकन छा रही है 

बुलाते बुलाते तो कोई न अब तक थका है न शायद थकेगा 

तो फिर ये निदा आईना है फ़क़त मैं थका हूँ 

न सहरा न पर्बत न कोई गुलिस्ताँ फ़क़त अब समुंदर बुलाता है मुझ को 

कि हर शय समुंदर से आई समुंदर में जा कर मिलेगी 

सबा वीराँ नून मीम राशिद नज़्म Nazm

सुलैमाँ सर-ब-ज़ानू और सबा वीराँ 

सबा वीराँ, सबा आसेब का मस्कन 

सबा आलाम का अम्बार-ए-बे-पायाँ! 

गयाह ओ सब्ज़ा ओ गुल से जहाँ ख़ाली 

हवाएँ तिश्ना-ए-बाराँ, 

तुयूर इस दश्त के मिनक़ार-ए-ज़ेर-ए-पर 

तू सुर्मा वर गुलू इंसाँ 

सुलैमाँ सर-ब-ज़ानू और सबा वीराँ! 

सुलैमाँ सर-ब-ज़ानू तुर्श-रू ग़म-गीं, परेशाँ-मू 

जहाँ-गिरी, जहाँ-बानी फ़क़त तर्रार-ए-आहू 

मोहब्बत शोला-ए-पराँ हवस बू-ए-गुल बे-बू 

ज़-राज़-ए-दहर कम-तर-गो! 

सबा वीराँ के अब तक इस ज़मीं पर हैं 

किसी अय्यार के ग़ारत-गरों के नक़्श-ए-पा बाक़ी 

सबा बाक़ी, न महरू-ए-सबा बाक़ी! 

सुलैमाँ सर-ब-ज़ानू 

अब कहाँ से क़ासिद-ए-फ़र्ख़ंदा-पय आए? 

कहाँ से, किस सुबू से कास-ए-पीरी में मय आए? 

सदा ब-सहरा मुनीर नियाज़ी नज़्म Nazm

चारों सम्त अंधेरा घुप है और घटा घनघोर 

वो कहती है कौन 

मैं कहता हूँ मैं 

खोलो ये भारी दरवाज़ा 

मुझ को अंदर आने दो 

उस के बाद इक लम्बी चुप और तेज़ हवा का शोर 


शाइरी मैं ने ईजाद की अफ़ज़ाल अहमद सय्यद नज़्म Nazm

काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया 

हुरूफ़ फ़ोनीशियों ने 

शाइरी मैं ने ईजाद की 

क़ब्र खोदने वाले ने तंदूर ईजाद किया 

तंदूर पर क़ब्ज़ा करने वालों ने रोटी की पर्ची बनाई 

रोटी लेने वालों ने क़तार ईजाद की 

और मिल कर गाना सीखा 

रोटी की क़तार में जब च्यूंटियाँ भी आ कर खड़ी हो गईं 

तो फ़ाक़ा ईजाद हो गया 

शहतूत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया 

शाइरी ने रेशम से लड़कियों के लिए लिबास बनाया 

रेशम में मल्बूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महल-सरा ईजाद की 

जहाँ जा कर उन्हों ने रेशम के कीड़े का पता बता दिया 

फ़ासले ने घोड़े के चार पाँव ईजाद किए 

तेज़-रफ़्तारी ने रथ बनाया 

और जब शिकस्त ईजाद हुई 

तो मुझे तेज़-रफ़्तार रथ के आगे लिटा दिया गया 

मगर उस वक़्त तक शाइरी मोहब्बत को ईजाद कर चुकी थी 

मोहब्बत ने दिल ईजाद किया 

दिल ने ख़ेमा और कश्तियाँ बनाईं 

और दूर-दराज़ के मक़ामात तय किए 

ख़्वाजा-सरा ने मछली पकड़ने का काँटा ईजाद किया 

और सोए हुए दिल में चुभो कर भाग गया 

दिल में चुभे हुए काँटे की डोर थामने के लिए 

नीलामी ईजाद हुई 

और 

जब्र ने आख़िरी बोली ईजाद की 

मैं ने सारी शाइरी बेच कर आग ख़रीदी 

और जब्र का हाथ जला दिया 

विसाल की ख़्वाहिश मुनीर नियाज़ी नज़्म Nazm

कह भी दे अब वो सब बातें 

जो दिल में पोशीदा हैं 

सारे रूप दिखा दे मुझ को 

जो अब तक नादीदा हैं 

एक ही रात के तारे हैं 

हम दोनों उस को जानते हैं 

दूरी और मजबूरी क्या है 

उस को भी पहचानते हैं 

क्यूँ फिर दोनों मिल नहीं सकते 

क्यूँ ये बंधन टूटा है 

या कोई खोट है तेरे दिल में 

या मेरा ग़म झूटा है 


वालिद के इंतिक़ाल पर आदिल मंसूरी नज़्म Nazm

वो चालीस रातों से सोया न था 

वो ख़्वाबों को ऊँटों पे लादे हुए 

रात के रेगज़ारों में चलता रहा 

चाँदनी की चिताओं में जलता रहा 

मेज़ पर 

काँच के इक प्याले में रक्खे हुए 

दाँत हँसते रहे 

काली ऐनक के शीशों के पीछे से फिर 

मोतिए की कली सर उठाने लगी 

आँख में तीरगी मुस्कुराने लगी 

रूह का हाथ 

छलनी हुआ सूई की नोक से 

ख़्वाहिशों के दिए 

जिस्म में बुझ गए 

सब्ज़ पानी की सय्याल परछाइयाँ 

लम्हा लम्हा बंद में उतरने लगीं 

घर की छत में जड़े 

दस सितारों के सायों तले 

अक्स धुँदला गए 

अक्स मुरझा गए 

वालिद की वफ़ात पर निदा फ़ाज़ली नज़्म Nazm

तुम्हारी क़ब्र पर 

मैं फ़ातिहा पढ़ने नहीं आया 

मुझे मालूम था 

तुम मर नहीं सकते 

तुम्हारी मौत की सच्ची ख़बर जिस ने उड़ाई थी 

वो झूटा था 

वो तुम कब थे 

कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से मिल के टूटा था 

मिरी आँखें 

तुम्हारे मंज़रों में क़ैद हैं अब तक 

मैं जो भी देखता हूँ 

सोचता हूँ 

वो वही है 

जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी 

कहीं कुछ भी नहीं बदला 

तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं 

मैं लिखने के लिए 

जब भी क़लम काग़ज़ उठाता हूँ 

तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ 

बदन में मेरे जितना भी लहू है 

वो तुम्हारी 

लग़्ज़िशों नाकामियों के साथ बहता है 

मिरी आवाज़ में छुप कर 

तुम्हारा ज़ेहन रहता है 

मिरी बीमारियों में तुम 

मिरी लाचारियों में तुम 

तुम्हारी क़ब्र पर जिस ने तुम्हारा नाम लिखा है 

वो झूटा है 

तुम्हारी क़ब्र में मैं दफ़्न हूँ 

तुम मुझ में ज़िंदा हो 

कभी फ़ुर्सत मिले तो फ़ातिहा पढ़ने चले आना 

व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नज़्म Nazm

हम देखेंगे 

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे 

वो दिन कि जिस का वादा है 

जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है 

जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ 

रूई की तरह उड़ जाएँगे 

हम महकूमों के पाँव-तले 

जब धरती धड़-धड़ धड़केगी 

और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर 

जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी 

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से 

सब बुत उठवाए जाएँगे 

हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम 

मसनद पे बिठाए जाएँगे 

सब ताज उछाले जाएँगे 

सब तख़्त गिराए जाएँगे 

बस नाम रहेगा अल्लाह का 

जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी 

जो मंज़र भी है नाज़िर भी 

उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा 

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो 

और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा 

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो 

 मैं डरता हूँ

अफ़ज़ाल अहमद सय्यद नज़्म Nazm

मैं डरता हूँ 

अपने पास की चीज़ों को 

छू कर शाइरी बना देने से 

रोटी को मैं ने छुआ 

और भूक शाइरी बन गई 

उँगली चाक़ू से कट गई 

और ख़ून शाइरी बन गया 

गिलास हाथ से गिर कर टूट गया 

और बहुत सी नज़्में बन गईं 

मैं डरता हूँ 

अपने से थोड़ी दूर की चीज़ों को 

देख कर शाइरी बना देने से 

दरख़्त को मैं ने देखा 

और छाँव शाइरी बन गई 

छत से मैं ने झाँका 

और सीढ़ियाँ शाइरी बन गईं 

इबादत-ख़ाने पर मैं ने निगाह डाली 

और ख़ुदा शाइरी बन गया 

मैं डरता हूँ 

अपने से दूर की चीज़ों को 

सोच कर शाइरी बना देने से 

मैं डरता हूँ 

तुम्हें सोच कर 

देख कर 

छू कर 

शाइरी बना देने से 

मैं और शहर
मुनीर नियाज़ी नज़्म Nazm

सड़कों पे बे-शुमार गुल-ए-ख़ूँ पड़े हुए 

पेड़ों की डालियों से तमाशे झड़े हुए 

कोठों की ममटियों पे हसीं बुत खड़े हुए 

सुनसान हैं मकान कहीं दर खुला नहीं 

कमरे सजे हुए हैं मगर रास्ता नहीं 

वीराँ है पूरा शहर कोई देखता नहीं 

आवाज़ दे रहा हूँ कोई बोलता नहीं 


मैं और मेरा ख़ुदा
मुनीर नियाज़ी नज़्म Nazm

लाखों शक्लों के मेले में तन्हा रहना मेरा काम

भेस बदल कर देखते रहना तेज़ हवाओं का कोहराम

एक तरफ़ आवाज़ का सूरज एक तरफ़ इक गूँगी शाम

एक तरफ़ जिस्मों की ख़ुशबू एक तरफ़ उस का अंजाम

बन गया क़ातिल मेरे लिए तो अपनी ही नज़रों का दाम

सब से बड़ा है नाम ख़ुदा का उस के बाद है मेरा नाम



मेरा सफ़र
अली सरदार जाफ़री नज़्म Nazm

''हम-चू सब्ज़ा बार-हा रोईदा-एम'' 

(रूमी) 

फिर इक दिन ऐसा आएगा 

आँखों के दिए बुझ जाएँगे 

हाथों के कँवल कुम्हलाएँगे 

और बर्ग-ए-ज़बाँ से नुत्क़ ओ सदा 

की हर तितली उड़ जाएगी 

इक काले समुंदर की तह में 

कलियों की तरह से खिलती हुई 

फूलों की तरह से हँसती हुई 

सारी शक्लें खो जाएँगी 

ख़ूँ की गर्दिश दिल की धड़कन 

सब रागनियाँ सो जाएँगी 

और नीली फ़ज़ा की मख़मल पर 

हँसती हुई हीरे की ये कनी 

ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं 

इस की सुब्हें इस की शामें 

बे-जाने हुए बे-समझे हुए 

इक मुश्त-ए-ग़ुबार-ए-इंसाँ पर 

शबनम की तरह रो जाएँगी 

हर चीज़ भुला दी जाएगी 

यादों के हसीं बुत-ख़ाने से 

हर चीज़ उठा दी जाएगी 

फिर कोई नहीं ये पूछेगा 

'सरदार' कहाँ है महफ़िल में 

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा 

बच्चों के दहन से बोलूँगा 

चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा 

जब बीज हँसेंगे धरती में 

और कोंपलें अपनी उँगली से 

मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी 

मैं पत्ती पत्ती कली कली 

अपनी आँखें फिर खोलूँगा 

सरसब्ज़ हथेली पर ले कर 

शबनम के क़तरे तौलूँगा 

मैं रंग-ए-हिना आहंग-ए-ग़ज़ल 

अंदाज़-ए-सुख़न बन जाऊँगा 

रुख़्सार-ए-उरूस-ए-नौ की तरह 

हर आँचल से छिन जाऊँगा 

जाड़ों की हवाएँ दामन में 

जब फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ को लाएँगी 

रह-रौ के जवाँ क़दमों के तले 

सूखे हुए पत्तों से मेरे 

हँसने की सदाएँ आएँगी 

धरती की सुनहरी सब नदियाँ 

आकाश की नीली सब झीलें 

हस्ती से मिरी भर जाएँगी 

और सारा ज़माना देखेगा 

हर क़िस्सा मिरा अफ़्साना है 

हर आशिक़ है 'सरदार' यहाँ 

हर माशूक़ा 'सुल्ताना' है 

मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ 

अय्याम के अफ़्सूँ-ख़ाने में 

मैं एक तड़पता क़तरा हूँ 

मसरूफ़-ए-सफ़र जो रहता है 

माज़ी की सुराही के दिल से 

मुस्तक़बिल के पैमाने में 

मैं सोता हूँ और जागता हूँ 

और जाग के फिर सो जाता हूँ 

सदियों का पुराना खेल हूँ मैं 

मैं मर के अमर हो जाता हूँ 



मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नज़्म Nazm

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात 

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है 

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात 

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है 

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए 

यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

अन-गिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म 

रेशम ओ अतलस ओ कमख़ाब में बुनवाए हुए 

जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म 

ख़ाक में लुथड़े हुए ख़ून में नहलाए हुए 

जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से 

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे 

अब भी दिलकश है तिरा हुस्न मगर क्या कीजे 

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा 

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा 

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग 


मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
अल्लामा इक़बाल नज़्म Nazm

सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब नक़्श-गर-ए-हादसात

सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब अस्ल-ए-हयात-ओ-ममात

सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब तार-ए-हरीर-ए-दो-रंग

जिस से बनाती है ज़ात अपनी क़बा-ए-सिफ़ात

सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब साज़-ए-अज़ल की फ़ुग़ाँ

जिस से दिखाती है ज़ात ज़ेर-ओ-बम-ए-मुम्किनात

तुझ को परखता है ये मुझ को परखता है ये

सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब सैरफ़ी-ए-काएनात

तू हो अगर कम अयार मैं हूँ अगर कम अयार

मौत है तेरी बरात मौत है मेरी बरात

तेरे शब-ओ-रोज़ की और हक़ीक़त है क्या

एक ज़माने की रौ जिस में न दिन है न रात

आनी-ओ-फ़ानी तमाम मोजज़ा-हा-ए-हुनर

कार-ए-जहाँ बे-सबात कार-ए-जहाँ बे-सबात

अव्वल ओ आख़िर फ़ना बातिन ओ ज़ाहिर फ़ना

नक़्श-ए-कुहन हो कि नौ मंज़िल-ए-आख़िर फ़ना

है मगर इस नक़्श में रंग-ए-सबात-ए-दवाम

जिस को किया हो किसी मर्द-ए-ख़ुदा ने तमाम

मर्द-ए-ख़ुदा का अमल इश्क़ से साहब फ़रोग़

इश्क़ है अस्ल-ए-हयात मौत है उस पर हराम

तुंद ओ सुबुक-सैर है गरचे ज़माने की रौ

इश्क़ ख़ुद इक सैल है सैल को लेता है थाम

इश्क़ की तक़्वीम में अस्र-ए-रवाँ के सिवा

और ज़माने भी हैं जिन का नहीं कोई नाम

इश्क़ दम-ए-जिब्रईल इश्क़ दिल-ए-मुस्तफ़ा

इश्क़ ख़ुदा का रसूल इश्क़ ख़ुदा का कलाम

इश्क़ की मस्ती से है पैकर-ए-गुल ताबनाक

इश्क़ है सहबा-ए-ख़ाम इश्क़ है कास-उल-किराम

इश्क़ फ़क़ीह-ए-हराम इश्क़ अमीर-ए-जुनूद

इश्क़ है इब्नुस-सबील इस के हज़ारों मक़ाम

इश्क़ के मिज़राब से नग़्मा-ए-तार-ए-हयात

इश्क़ से नूर-ए-हयात इश्क़ से नार-ए-हयात

ऐ हरम-ए-क़ुर्तुबा इश्क़ से तेरा वजूद

इश्क़ सरापा दवाम जिस में नहीं रफ़्त ओ बूद

रंग हो या ख़िश्त ओ संग चंग हो या हर्फ़ ओ सौत

मोजज़ा-ए-फ़न की है ख़ून-ए-जिगर से नुमूद

क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर सिल को बनाता है दिल

ख़ून-ए-जिगर से सदा सोज़ ओ सुरूर ओ सुरूद

तेरी फ़ज़ा दिल-फ़रोज़ मेरी नवा सीना-सोज़

तुझ से दिलों का हुज़ूर मुझ से दिलों की कुशूद

अर्श-ए-मोअल्ला से कम सीना-ए-आदम नहीं

गरचे कफ़-ए-ख़ाक की हद है सिपहर-ए-कबूद

पैकर-ए-नूरी को है सज्दा मयस्सर तो क्या

उस को मयस्सर नहीं सोज़-ओ-गुदाज़-ए-सजूद

काफ़िर-ए-हिन्दी हूँ मैं देख मिरा ज़ौक़ ओ शौक़

दिल में सलात ओ दुरूद लब पे सलात ओ दुरूद

शौक़ मिरी लय में है शौक़ मिरी नय में है

नग़्मा-ए-अल्लाह-हू मेरे रग-ओ-पय में है

तेरा जलाल ओ जमाल मर्द-ए-ख़ुदा की दलील

वो भी जलील ओ जमील तू भी जलील ओ जमील

तेरी बिना पाएदार तेरे सुतूँ बे-शुमार

शाम के सहरा में हो जैसे हुजूम-ए-नुख़ील

तेरे दर-ओ-बाम पर वादी-ए-ऐमन का नूर

तेरा मिनार-ए-बुलंद जल्वा-गह-ए-जिब्रील

मिट नहीं सकता कभी मर्द-ए-मुसलमाँ कि है

उस की अज़ानों से फ़ाश सिर्र-ए-कलीम-ओ-ख़लील

उस की ज़मीं बे-हुदूद उस का उफ़ुक़ बे-सग़ूर

उस के समुंदर की मौज दजला ओ दनयूब ओ नील

उस के ज़माने अजीब उस के फ़साने ग़रीब

अहद-ए-कुहन को दिया उस ने पयाम-ए-रहील

साक़ी-ए-रबाब-ए-ज़ौक़ फ़ारस-ए-मैदान-ए-शौक़

बादा है उस का रहीक़ तेग़ है उस की असील

मर्द-ए-सिपाही है वो उस की ज़िरह ला-इलाह

साया-ए-शमशीर में उस की पनह ला-इलाह

तुझ से हुआ आश्कार बंदा-ए-मोमिन का राज़

उस के दिनों की तपिश उस की शबों का गुदाज़

उस का मक़ाम-ए-बुलंद उस का ख़याल-ए-अज़ीम

उस का सुरूर उस का शौक़ उस का नियाज़ उस का नाज़

हाथ है अल्लाह का बंदा-ए-मोमिन का हाथ

ग़ालिब ओ कार-आफ़रीं कार-कुशा कारसाज़

ख़ाकी ओ नूरी-निहाद बंदा-ए-मौला-सिफ़ात

हर दो-जहाँ से ग़नी उस का दिल-ए-बे-नियाज़

उस की उमीदें क़लील उस के मक़ासिद जलील

उस की अदा दिल-फ़रेब उस की निगह दिल-नवाज़

आज भी इस देस में आम है चश्म-ए-ग़ज़ाल

और निगाहों के तीर आज भी हैं दिल-नशीं

बू-ए-यमन आज भी उस की हवाओं में है

रंग-ए-हिजाज़ आज भी उस की नवाओं में है

दीदा-ए-अंजुम में है तेरी ज़मीं आसमाँ

आह कि सदियों से है तेरी फ़ज़ा बे-अज़ाँ

कौन सी वादी में है कौन सी मंज़िल में है

इश्क़-ए-बला-ख़ेज़ का क़ाफ़िला-ए-सख़्त-जाँ

देख चुका अल्मनी शोरिश-ए-इस्लाह-ए-दीं

जिस ने न छोड़े कहीं नक़्श-ए-कुहन के निशाँ

हर्फ़-ए-ग़लत बन गई इस्मत-ए-पीर-ए-कुनिश्त

और हुई फ़िक्र की कश्ती-ए-नाज़ुक रवाँ

चश्म-ए-फ़िराँसिस भी देख चुकी इंक़लाब

जिस से दिगर-गूँ हुआ मग़रबियों का जहाँ

मिल्लत-ए-रूमी-निज़ाद कोहना-परस्ती से पीर

लज़्ज़त-ए-तज्दीदा से वो भी हुई फिर जवाँ

रूह-ए-मुसलमाँ में है आज वही इज़्तिराब

राज़-ए-ख़ुदाई है ये कह नहीं सकती ज़बाँ

नर्म दम-ए-गुफ़्तुगू गर्म दम-ए-जुस्तुजू

रज़्म हो या बज़्म हो पाक-दिल ओ पाक-बाज़

नुक़्ता-ए-परकार-ए-हक़ मर्द-ए-ख़ुदा का यक़ीं

और ये आलम तमाम वहम ओ तिलिस्म ओ मजाज़

अक़्ल की मंज़िल है वो इश्क़ का हासिल है वो

हल्क़ा-ए-आफ़ाक़ में गर्मी-ए-महफ़िल है वो

काबा-ए-अरबाब-ए-फ़न सतवत-ए-दीन-ए-मुबीं

तुझ से हरम मर्तबत उंदुलुसियों की ज़मीं

है तह-ए-गर्दूं अगर हुस्न में तेरी नज़ीर

क़ल्ब-ए-मुसलमाँ में है और नहीं है कहीं

आह वो मरदान-ए-हक़ वो अरबी शहसवार

हामिल-ए-ख़ल्क़-ए-अज़ीम साहब-ए-सिद्क-ओ-यक़ीं

जिन की हुकूमत से है फ़ाश ये रम्ज़-ए-ग़रीब

सल्तनत-ए-अहल-ए-दिल फ़क़्र है शाही नहीं

जिन की निगाहों ने की तर्बियत-ए-शर्क़-ओ-ग़र्ब

ज़ुल्मत-ए-यूरोप में थी जिन की ख़िरद-राह-बीं

जिन के लहू के तुफ़ैल आज भी हैं उंदुलुसी

ख़ुश-दिल ओ गर्म-इख़्तिलात सादा ओ रौशन-जबीं

देखिए इस बहर की तह से उछलता है क्या

गुम्बद-ए-नीलोफ़री रंग बदलता है क्या

वादी-ए-कोह-सार में ग़र्क़-ए-शफ़क़ है सहाब

लाल-ए-बदख़्शाँ के ढेर छोड़ गया आफ़्ताब

सादा ओ पुर-सोज़ है दुख़्तर-ए-दहक़ाँ का गीत

कश्ती-ए-दिल के लिए सैल है अहद-ए-शबाब

आब-ए-रवान-ए-कबीर तेरे किनारे कोई

देख रहा है किसी और ज़माने का ख़्वाब

आलम-ए-नौ है अभी पर्दा-ए-तक़दीर में

मेरी निगाहों में है उस की सहर बे-हिजाब

पर्दा उठा दूँ अगर चेहरा-ए-अफ़्कार से

ला न सकेगा फ़रंग मेरी नवाओं की ताब

जिस में न हो इंक़लाब मौत है वो ज़िंदगी

रूह-ए-उमम की हयात कश्मकश-ए-इंक़िलाब

सूरत-ए-शमशीर है दस्त-ए-क़ज़ा में वो क़ौम

करती है जो हर ज़माँ अपने अमल का हिसाब

नक़्श हैं सब ना-तमाम ख़ून-ए-जिगर के बग़ैर

नग़्मा है सौदा-ए-ख़ाम ख़ून-ए-जिगर के बग़ैर

बारहवाँ खिलाड़ी
इफ़्तिख़ार आरिफ़ नज़्म Nazm

ख़ुश-गवार मौसम में 

अन-गिनत तमाशाई 

अपनी अपनी टीमों को 

दाद देने आते हैं 

अपने अपने प्यारों का 

हौसला बढ़ाते हैं 

मैं अलग-थलग सब से 

बारहवें खिलाड़ी को 

हूट करता रहता हूँ 

बारहवाँ खिलाड़ी भी 

क्या अजब खिलाड़ी है 

खेल होता रहता है 

शोर मचता रहता है 

दाद पड़ती रहती है 

और वो अलग सब से 

इंतिज़ार करता है 

एक ऐसी साअ'त का 

एक ऐसे लम्हे का 

जिस में सानेहा हो जाए 

फिर वो खेलने निकले 

तालियों के झुरमुट में 

एक जुमला-ए-ख़ुश-कुन 

एक नारा-ए-तहसीन 

उस के नाम पर हो जाए 

सब खिलाड़ियों के साथ 

वो भी मो'तबर हो जाए 

पर ये कम ही होता है 

फिर भी लोग कहते हैं 

खेल से खिलाड़ी का 

उम्र-भर का रिश्ता है 

उम्र-भर का ये रिश्ता 

छूट भी तो सकता है 

आख़िरी विसिल के साथ 

डूब जाने वाला दिल 

टूट भी तो सकता है 

तुम भी इफ़्तिख़ार-आरिफ़ 

बारहवें खिलाड़ी हो 

इंतिज़ार करते हो 

एक ऐसे लम्हे का 

एक ऐसी साअ'त का 

जिस में हादिसा हो जाए 

जिस में सानेहा हो जाए 

तुम भी इफ़्तिख़ार-आरिफ़ 

तुम भी डूब जाओगे 

तुम भी टूट जाओगे 


बदन का फ़ैसला
मोहम्मद अल्वी नज़्म Nazm

ये बदन 

जिसे मैं 

बेहतरीन ग़िज़ाएँ खिलाता रहा 

पानी की जगह 

शराब पिलाता रहा 

यही बदन 

मुझ से कहता है 

जाओ 

दफ़ा हो जाओ 

जन्नत के मज़े उड़ाओ 

कि दोज़ख़ के अज़ाब उठाओ 

मेरी बला से 

मैं तो अब 

क़ब्र में सो रहूँगा 

मिट्टी हूँ 

मिट्टी का हो रहूँगा!! 


बंजारा-नामा
नज़ीर अकबराबादी नज़्म Nazm

टुक हिर्स-ओ-हवा को छोड़ मियाँ मत देस बिदेस फिरे मारा 

क़ज़्ज़ाक़ अजल का लूटे है दिन रात बजा कर नक़्क़ारा 

क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गू में पल्ला सर-भारा 

क्या गेहूँ चाँवल मोठ मटर क्या आग धुआँ और अँगारा 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

गर तो है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है 

ऐ ग़ाफ़िल तुझ से भी चढ़ता इक और बड़ा बयोपारी है 

क्या शक्कर मिस्री क़ंद गरी क्या सांभर मीठा खारी है 

क्या दाख मुनक़्का सोंठ मिरच क्या केसर लौंग सुपारी है 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छम जावेगा 

या सूद बढ़ा कर लावेगा या टूटा घाटा पावेगा 

क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा 

धन दौलत नाती पोता क्या इक कुम्बा काम न आवेगा 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

हर मंज़िल में अब साथ तिरे ये जितना डेरा-डांडा है 

ज़र दाम-दिरम का भांडा है बंदूक़ सिपर और खांडा है 

जब नायक तन का निकल गया जो मुल्कों मुल्कों हांडा है 

फिर हांडा है न भांडा है न हल्वा है न मांडा है 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

जब चलते चलते रस्ते में ये गौन तिरी रह जावेगी 

इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने आवेगी 

ये खेप जो तू ने लादी है सब हिस्सों में बट जावेगी 

धी पूत जँवाई बेटा क्या बंजारन पास न आवेगी 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

ये खेप भरे जो जाता है ये खेप मियाँ मत गिन अपनी 

अब कोई घड़ी पल साअत में ये खेप बदन की है कफ़नी 

क्या थाल कटोरी चाँदी की क्या पीतल की ढिबिया-ढकनी 

क्या बर्तन सोने चाँदी के क्या मिट्टी की हंडिया चीनी 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चले गा बंजारा 

ये धूम-धड़क्का साथ लिए क्यूँ फिरता है जंगल जंगल 

इक तिनका साथ न जावेगा मौक़ूफ़ हुआ जब अन्न और जल 

घर-बार अटारी चौपारी क्या ख़ासा नैन-सुख और मलमल 

चलवन पर्दे फ़र्श नए क्या लाल पलंग और रंग-महल 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

कुछ काम न आवेगा तेरे ये लाल-ओ-जमुर्रद सीम-ओ-ज़र 

जब पूँजी बाट में बिखरेगी हर आन बनेगी जान ऊपर 

नौबत नक़्क़ारे बान निशान दौलत हशमत फ़ौजें लश्कर 

क्या मसनद तकिया मुल्क मकाँ क्या चौकी कुर्सी तख़्त छतर 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

क्यूँ जी पर बोझ उठाता है इन गौनों भारी भारी के 

जब मौत का डेरा आन पड़ा फिर दूने हैं बयोपोरी के 

क्या साज़ जड़ाऊ ज़र-ज़ेवर क्या गोटे थान कनारी के 

क्या घोड़े ज़ीन सुनहरी के क्या हाथी लाल अमारी के 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

मफ़रूर न हो तलवारों पर मत फूल भरोसे ढालों के 

सब पट्टा तोड़ के भागेंगे मुँह देख अजल के भालों के 

क्या ढब्बे मोती हीरों के क्या ढेर ख़ज़ाने मालों के 

क्या बुग़चे ताश मोशज्जर के क्या तख़्ते शाल दोशालों के 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

क्या सख़्त मकाँ बनवाता है ख़म तेरे तन का है पोला 

तू ऊँचे कोट उठाता है वाँ गोर गढ़े ने मुँह खोला 

क्या रेनी ख़ंदक़ रन्द बड़े क्या ब्रिज कंगोरा अनमोला 

गढ़ कोट रकल्ला तोप क़िला क्या शीशा दारू और गोला 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

हर आन नफ़अ और टोटे में क्यूँ मरता फिरता है बन बन 

टक ग़ाफ़िल दिल में सोच ज़रा है साथ लगा तेरे दुश्मन 

क्या लौंडी बांदी दाई दवा क्या बंदा चेला नेक-चलन 

क्या मंदर मस्जिद ताल कुआँ क्या खेती बाड़ी फूल चमन 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 

जब मर्ग फिरा कर चाबुक को ये बैल बदन का हाँकेगा 

कोई नाज समेटेगा तेरा कोई गौन सिए और टाँकेगा 

हो ढेर अकेला जंगल में तू ख़ाक लहद की फाँकेगा 

उस जंगल में फिर आह 'नज़ीर' इक तिनका आन न झाँकेगा 

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा 


फ़रमान-ए-ख़ुदा
अल्लामा इक़बाल नज़्म Nazm

उठ्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो

काख़-ए-उमरा के दर ओ दीवार हिला दो

गर्माओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से

कुन्जिश्क-ए-फ़रोमाया को शाहीं से लड़ा दो

सुल्तानी-ए-जम्हूर का आता है ज़माना

जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आए मिटा दो

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो

क्यूँ ख़ालिक़ ओ मख़्लूक़ में हाइल रहें पर्दे

पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से उठा दो

हक़ रा ब-सजूदे सनमाँ रा ब-तवाफ़े

बेहतर है चराग़-ए-हरम-ओ-दैर बुझा दो

मैं ना-ख़ुश ओ बे-ज़ार हूँ मरमर की सिलों से

मेरे लिए मिट्टी का हरम और बना दो

तहज़ीब-ए-नवी कारगह-ए-शीशागराँ है

आदाब-ए-जुनूँ शाइर-ए-मशरिक़ को सिखा दो


दस्तूर
हबीब जालिब नज़्म

दीप जिस का महल्लात ही में जले 

चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले 

वो जो साए में हर मस्लहत के पले 

ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को 

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता 

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से 

मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से 

क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से 

ज़ुल्म की बात को जहल की रात को 

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता 

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो 

जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो 

चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो 

इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को 

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता 

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ 

अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ 

चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ 

तुम नहीं चारागर कोई माने मगर 

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता 

तौसी-ए-शहर
मजीद अमजद नज़्म Nazm

बीस बरस से खड़े थे जो इस गाती नहर के द्वार

झूमते खेतों की सरहद पर बाँके पहरे-दार

घने सुहाने छाँव छिड़कते बोर लदे छितनार

बीस हज़ार में बिक गए सारे हरे भरे अश्जार

जिन की साँस का हर झोंका था एक अजीब तिलिस्म

क़ातिल तेशे चीर गए उन सावंतों के जिस्म

गिरी धड़ाम से घायल पेड़ों की नीली दीवार

कटते हैकल झड़ते पिंजर छटते बर्ग-ओ-बार

सही धूप के ज़र्द कफ़न में लाशों के अम्बार

आज खड़ा मैं सोचता हूँ इस गाती नहर के द्वार

इस मक़्तल में सिर्फ़ इक मेरी सोच लहकती डाल

मुझ पर भी अब कारी ज़र्ब इक ऐ आदम की आल


ताज-महल
साहिर लुधियानवी नज़्म Nazm

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही

तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मअ'नी

सब्त जिस राह में हों सतवत-ए-शाही के निशाँ

उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मअ'नी

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा

तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता

मुर्दा-शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली

अपने तारीक मकानों को तो देखा होता

अन-गिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है

कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उन के

लेकिन उन के लिए तश्हीर का सामान नहीं

क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़्लिस थे

ये इमारात ओ मक़ाबिर ये फ़सीलें ये हिसार

मुतलक़-उल-हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूँ

सीना-ए-दहर के नासूर हैं कोहना नासूर

जज़्ब है उन में तिरे और मिरे अज्दाद का ख़ूँ

मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी

जिन की सन्नाई ने बख़्शी है उसे शक्ल-ए-जमील

उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नुमूद

आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़िंदील

ये चमन-ज़ार ये जमुना का किनारा ये महल

ये मुनक़्क़श दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़

इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर

हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से


तन्हाई
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ नज़्म Nazm

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार नहीं कोई नहीं

राह-रौ होगा कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार

लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़

सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़ार

अजनबी ख़ाक ने धुँदला दिए क़दमों के सुराग़

गुल करो शमएँ बढ़ा दो मय ओ मीना ओ अयाग़

अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो

अब यहाँ कोई नहीं कोई नहीं आएगा



डिप्रेशन
मोहम्मद अल्वी नज़्म Nazm

कोई हादसा 

कोई सानेहा 

कोई बहुत ही बुरी ख़बर 

अभी कहीं से आएगी! 

ऐसी जान-लेवा फ़िक्रों में 

सारा दिन डूबा रहता हूँ 

रात को सोने से पहले 

अपने-आप से कहता हूँ 

भाई मिरे 

दिन ख़ैर से गुज़रा 

घर में सब आराम से हैं 

कल की फ़िक्रें 

कल के लिए उठा रक्खो 

मुमकिन हो तो 

अपने-आप को 

मौत की नींद सुला रक्खो!! 


चिड़ियों का शोर
ज़ीशान साहिल नज़्म Nazm

सफ़ेद काग़ज़ पर 

पेन्सिल के चलने की आवाज़ 

बहुत कम है 

सड़क पर टैंक गुज़रने की आवाज़ 

इस से कुछ ज़ियादा है 

और शायद मेरी आवाज़ 

इन दोनों आवाज़ों से ज़ियादा है 

मगर सब से ज़ियादा है 

चिड़ियों का शोर 

बढ़ता ही रहता 

जब एक शिकारी आता है 

हवा में बंदूक़ चलाता है 

एक चिड़िया ख़ौफ़ से मर जाती है 

बाक़ी शोर मचाती हैं 

चिड़ियों का शोर ज़ियादा हो जाता है 

शिकारी को मार देता है 


चारा-गर
मख़दूम मुहिउद्दीन Nazm   

इक चमेली के मंडवे-तले 

मय-कदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर 

दो बदन 

प्यार की आग में जल गए 

प्यार हर्फ़-ए-वफ़ा प्यार उन का ख़ुदा 

प्यार उन की चिता 

दो बदन 

ओस में भीगते चाँदनी में नहाते हुए 

जैसे दो ताज़ा-रौ ताज़ा-दम फूल पिछले-पहर 

ठंडी ठंडी सुबुक-रौ चमन की हवा 

सर्फ़-ए-मातम हुई 

काली काली लटों से लपट गर्म रुख़्सार पर 

एक पल के लिए रुक गई 

हम ने देखा उन्हें 

दिन में और रात में 

नूर-ओ-ज़ुल्मात में 

मस्जिदों के मनारों ने देखा उन्हें 

मंदिरों के किवाड़ों ने देखा उन्हें 

मय-कदों की दराड़ों ने देखा उन्हें 

अज़-अज़ल ता-अबद 

ये बता चारा-गर 

तेरी ज़म्बील में 

नुस्ख़ा-ए-कीमीया-ए-मुहब्बत भी है 

कुछ इलाज ओ मुदावा-ए-उल्फ़त भी है 

इक चमेली के मंडवे-तले 

मय-कदे से ज़रा दूर उस मोड़ पर 

दो बदन 

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