स्वजाति प्रेम / पंचतंत्र Panchtantra
एक वन में एक तपस्वी रहते थे। वे बहुत पहुंचे हुए ॠषि थे। उनका तपस्या बल बहुत ऊंचा था। रोज वह प्रातः आकर नदी में स्नान करते और नदी किनारे के एक पत्थर के ऊपर आसन जमाकर तपस्या करते थे। निकट ही उनकी कुटिया थी, जहां उनकी पत्नी भी रहती थी।
एक दिन एक विचित्र घटना घटी। अपनी तपस्या समाप्त करने के बाद ईश्वर को प्रणाम करके उन्होंने अपने हाथ खोले ही थे कि उनके हाथों में एक नन्ही-सी चुहीया आ गिरी। वास्तव में आकाश में एक चील पंजों में उस चुहिया को दबाए उडी जा रही थी और संयोगवश चुहिया पंजो से छुटकर गिर पडी थी। ॠषि ने मौत के भय से थर-थर कांपती चुहिया को देखा।
ठ्र्षि और उनकी पत्नी के कोई संतान नहीं थी। कई बार पत्नी संतान की इच्छा व्यक्त कर चुकी थी। ॠषि दिलासा देते रहते थे। ॠषि को पता था कि उनकी पत्नी के भागय में अपनी कोख से संतान को जन्म देकर मां बनने का सुख नहीं लिखा हैं। किस्मत का लिखा तो बदला नहीं जा सकता परन्तु अपने मुंह से यह सच्चाई बताकर वे पत्नी का दिल नहीं दुखाना चाहते थे। यह भी सोचते रहते कि किस उपाय से पत्नी के जीवन का यह अभाव दूर किया जाए।
ॠषि को नन्हीं चुहिया पर दया आ गई। उन्होंने अपनी आंखें बंदकर एक मंत्र पढा और अपनी तपस्या की शक्ति से चुहिया को मानव बच्ची बना दिया। वह उस बच्ची को हाथों में उठाए घर पहुंचे और अपनी पत्नी से बोले 'सुभागे, तुम सदा संतान की कामना किया करती थी। समझ लो कि ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और यह बच्ची भेज दी। इसे अपनी पुत्री समझकर इसका लालन-पालन करो।'
ॠषि पत्नी बच्ची को देखकर बहुत प्रसन्न हुउई। बच्ची को अपने हाथों में लेकर चूमने लगी 'कितनी प्यारी बच्ची है। मेरी बच्ची ही तो हैं यह। इसे मैं पुत्री की तरह ही पालूंगी।'
इस प्रकार वह चुहिया मानव बच्ची बनकर ॠषि के परिवार में पलने लगी। ॠषि पत्नी सच्ची मां की भांति ही उसकी देखभाल करने लगी। उसने बच्ची का नाम कांता रखा। ॠषि भी कांता से पितावत स्नेह करने लगे। धीरे-धीरे वे यह भूल गए की उनकी पुत्री कभी चुहिया थी।
मां तो बच्ची के प्यार में खो गई। वह दिन-रात उसे खिलाने और उससे खेलने में लगी रहती। ॠषि अपनी पत्नी को ममता लुटाते देख प्रसन्न होते कि आखिर संतान न होने का उसे दुख नहीं रहा। ॠषि ने स्वयं भी उचित समय आने पर कांताअ को शिक्षा दी और सारी ज्ञान-विज्ञान की बातें सिखाई। समय पंख लगाकर उडने लगा। देखते ही देखते मां का प्रेम तथा ॠषि का स्नेह व शिक्षा प्राप्त करती कांता बढते-बढते सोलह वर्ष की सुंदर, सुशील व योग्य युवती बन गई। माता को बेटी के विवाह की चिंता सताने लगी। एक दिन उसने ॠषि से कह डाला 'सुनो, अब हमारी कांता विवाह योग्य हो गई हैं। हमें उसके हाथ पीले कर देने चाहिए।'
तभी कांता वहां आ पहुंची। उसने अपने केशों में फूल गूंथ रखे थे। चेहरे पर यौवन दमक रहा था। ॠषि को लगा कि उनकी पत्नी ठीक कह रही हैं। उन्होंने धीरे से अपनी पत्नी के कान में कहा 'मैं हमारी बिटिया के लिए अच्छे से अच्छा वर ढूंढ निकालूंगा।'
उन्होंने अपने तपोबल से सूर्यदेव का आवाहन किया। सूर्य ॠषि के सामने प्रकट हुए और बोले 'प्रणाम मुनिश्री, कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया? क्या आज्ञा हैं?'
ॠषि ने कांता की ओर इशारा करके कहा 'यह मेरी बेटी हैं। सर्वगुण सुशील हैं। मैं चाहता हूं कि तुम इससे विवाह कर लो।'
तभी कांता बोली 'तात, यह बहुत गर्म हैं। मेरी तो आंखें चुंधिया रही हैं। मैं इनसे विवाह कैसे करूं? न कभी इनके निकट जा पाऊंगी, न देख पाऊंगी।'
ॠषि ने कांता की पीठ थपथपाई और बोले 'ठीक हैं। दूसरे और श्रेष्ठ वर देखते हैं।'
सूर्यदेव बोले 'ॠषिवर, बादल मुझसे श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी ढक लेता हैं। उससे बात कीजिए।'
ॠषि के बुलाने पर बादल गरजते-लरजते और बिजलियां चमकाते प्रकट हुए। बादल को देखते ही कांता ने विरोध किया 'तात, यह तो बहुत काले रंग का हैं। मेरा रंग गोरा हैं। हमारी जोडी नहीं जमेगी।'
ॠषि ने बादल से पूछा 'तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?'
बादल ने उत्तर दिया 'पवन। वह मुझे भी उडाकर ले जाता हैं। मैं तो उसी के इशारे पर चलता रहता हूं।'
ॠषि ने पवन का आवाहन किया। पवन देव प्रकट हुए तो ॠषि ने कांता से ही पूछा 'पुत्री, तुम्हे यह वर पसंद हैं?”
कांता ने अपना सिर हिलाया “नहीं तात! यह बहुत चंचल हैं। एक जगह टिकेगा ही नहीं। इसके साथ गॄहस्थी कैसे जमेगी?'
ॠषि की पत्नी भी बोली 'हम अपनी बेटी पवन देव को नहीं देंगे। दामाद कम से कम ऐसा तो होना चाहिए, जिसे हम अपनी आंख से देख सकें।'
ॠषि ने पवन देव से पूछा 'तुम्ही बताओ कि तुमसे श्रेष्ठ कौन हैं?'
पवन देव बोले 'ॠषिवर, पर्वत मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मेरा रास्ता रोक लेता हैं।'
ॠषि के बुलावे पर पर्वतराज प्रकट हुए और बोले 'ॠषिवर, आपने मुझे क्यों याद किया?'
ॠषि ने सारी बात बताई। पर्वतराज ने कहा 'पूछ लीजिए कि आपकी कन्या को मैं पसंद हूं क्या?'
कांता बोली 'ओह! यह तो पत्थर ही पत्थर हैं। इसका दिल भी पत्थर का होगा।'
ॠषि ने पर्वतराज से उससे भी श्रेष्ठ वर बताने को कहा तो पर्वतराज बोले 'चूहा मुझसे भी श्रेष्ठ हैं। वह मुझे भी छेदकर बिल बनाकर उसमें रहता हैं।'
पर्वतराज के ऐसा कहते ही एक चूहा उनके कानों से निकलकर सामने आ कूदा। चूहे को देखते ही कांता खुशी से उछल पडी 'तात, तात! मुझे यह चूहा बहुत पसंद हैं। मेरा विवाह इसी से कर दीजिए। मुझे इसके कान और पूंछ बहुत प्यारे लग रहे हैं।मुझे यही वर चाहिए।'
ॠषि ने मंत्र बल से एक चुहिया को तो मानवी बना दिया, पर उसका दिल तो चुहिया का ही रहा। ॠषि ने कांता को फिर चुहिया बनाकर उसका विवाह चूहे से कर दिया और दोनों को विदा किया।
सीखः -- जीव जिस योनी में जन्म लेता हैं, उसी के संस्कार बने रहते हैं। स्वभाव नकली उपायों से नहीं बदले जा सकते।
चतुर बिल्ली / पंचतंत्र Panchtantra
एक चिड़ा पेड़ पर घोंसला बनाकर मजे से रहता था। एक दिन वह दाना पानी के चक्कर में अच्छी फसल वाले खेत में पहुंच गया। वहां खाने पीने की मौज से बड़ा ही खुश हुआ। उस खुशी में रात को वह घर आना भी भूल गया और उसके दिन मजे में वहीं बीतने लगे।
इधर शाम को एक खरगोश उस पेड़ के पास आया जहां चिड़े का घोंसला था। पेड़ जरा भी ऊंचा नहीं था। इसलिए खरगोश ने उस घोंसलें में झांक कर देखा तो पता चला कि यह घोंसला खाली पड़ा है। घोंसला अच्छा खासा बड़ा था इतना कि वह उसमें खरगोश आराम से रह सकता था। उसे यह बना बनाया घोंसला पसंद आ गया और उसने यहीं रहने का फैसला कर लिया।
कुछ दिनों बाद वह चिड़ा खा-खा कर मोटा ताजा बन कर अपने घोंसलें की याद आने पर वापस लौटा। उसने देखा कि घोंसलें में खरगोश आराम से बैठा हुआ है। उसे बड़ा गुस्सा आया, उसने खरगोश से कहा,
'चोर कहीं के, मैं नहीं था तो मेरे घर में घुस गए हो? चलो निकलो मेरे घर से, जरा भी शरम नहीं आई मेरे घर में रहते हुए?'
खरगोश शान्ति से जवाब देने लगा,
'कहां का तुम्हारा घर? कौन सा तुम्हारा घर? यह तो मेरा घर है। पागल हो गए हो तुम। अरे! कुआं, तालाब या पेड़ एक बार छोड़कर कोई जाता हैं तो अपना हक भी गवां देता हैं। यहां तो जब तक हम हैं, वह अपना घर है। बाद में तो उसमें कोई भी रह सकता है। अब यह घर मेरा है। बेकार में मुझे तंग मत करो।'
यह बात सुनकर चिड़ा कहने लगा,
'ऐसे बहस करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। किसी धर्मपण्डित के पास चलते हैं। वह जिसके हक में फैसला सुनायेगा उसे घर मिल जाएगा।'
उस पेड़ के पास से एक नदी बहती थी। वहां पर एक बड़ी सी बिल्ली बैठी थी। वह कुछ धर्मपाठ करती नजर आ रही थी। वैसे तो यह बिल्ली इन दोनों की जन्मजात शत्रु है लेकिन वहां और कोई भी नहीं था इसलिए उन दोनों ने उसके पास जाना और उससे न्याय लेना ही उचित समझा। सावधानी बरतते हुए बिल्ली के पास जा कर उन्होंने अपनी समस्या बताई।
उन्होंने कहा,
'हमने अपनी उलझन तो बता दी, अब इसका हल क्या है? इसका जबाब आपसे सुनना चाहते हैं। जो भी सही होगा उसे वह घोंसला मिल जाएगा और जो झूठा होगा उसे आप खा लें।'
'अरे रे !! यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, हिंसा जैसा पाप नहीं इस दुनिया में। दूसरों को मारने वाला खुद नरक में जाता है। मैं तुम्हें न्याय देने में तो मदद करूंगी लेकिन झूठे को खाने की बात है तो वह मुझसे नहीं हो पाएगा। मैं एक बात तुम लोगों को कानों में कहना चाहती हूं, जरा मेरे करीब आओ तो!!'
खरगोश और चिड़ा खुश हो गए कि अब फैसला हो कर रहेगा। और उसके बिलकुल करीब गए। फिर क्या? करीब आए खरगोश को पंजे में पकड़ कर मुंह से चिड़े को बिल्ली ने नोंच लिया। दोनों का काम तमाम कर दिया। अपने शत्रु को पहचानते हुए भी उस पर विश्वास करने से खरगोश और चिड़े को अपनी जानें गवांनी पड़ीं।
(सच है, शत्रु से संभलकर और हो सके तो चार हाथ दूर ही रहने में भलाई होती है। )
अक़्लमंद हंस / पंचतंत्र Panchtantra
एक बहुत बड़ा विशाल पेड़ था। उस पर बहुत से हंस रहते थे। उनमें एक बहुत सयाना हंस था। वह बुद्धिमान और बहुत दूरदर्शी था। सब उसका आदर करते 'ताऊ' कहकर बुलाते थे। एक दिन उसने एक नन्ही-सी बेल को पेड़ के तने पर बहुत नीचे लिपटते पाया। ताऊ ने दूसरे हंसों को बुलाकर कहा,
"देखो, इस बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सबको मौत के मुँह में ले जाएगी।"
एक युवा हंस हँसते हुए बोला,
"ताऊ, यह छोटी-सी बेल हमें कैसे मौत के मुँह में ले जाएगी?"
सयाने हंस ने समझाया,
"आज यह तुम्हें छोटी-सी लग रही हैं। धीरे-धीरे यह पेड़ के सारे तने को लपेटा मारकर ऊपर तक आएगी। फिर बेल का तना मोटा होने लगेगा और पेड़ से चिपक जाएगा, तब नीचे से ऊपर तक पेड़ पर चढ़ने के लिए सीढ़ी बन जाएगी। कोई भी शिकारी सीढ़ी के सहारे चढ़कर हम तक पहुंच जाएगा और हम मारे जाएँगे।"
दूसरे हंस को यक़ीन न आया,
"एक छोटी सी बेल कैसे सीढ़ी बन जाएगी?"
तीसरा हंस बोला,
"ताऊ, तू तो एक छोटी-सी बेल को खींच कर ज्यादा ही लम्बा कर रहा है।"
किसी ने कहा, "यह ताऊ अपनी अक्ल का रोब डालने के लिए अर्थहीन कहानी गढ़ रहा है।"
इस प्रकार किसी भी हंस ने ताऊ की बात को गंभीरता से नहीं लिया। इतनी दूर तक देख पाने की उनमें अक्ल कहां थी! समय बीतता रहा। बेल लिपटते-लिपटते ऊपर शाखों तक पहुंच गई। बेल का तना मोटा होना शुरु हुआ और सचमुच ही पेड़ के तने पर सीढ़ी बन गई जिस पर आसानी से चढ़ा जा सकता था। सबको ताऊ की बात की सच्चाई नजर आने लगी पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था क्योंकि बेल इतनी मजबूत हो गई थी कि उसे नष्ट करना हंसों के बस की बात नहीं थी। एक दिन जब सब हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे तब एक बहेलिआ उधर आ निकला। पेड़ पर बनी सीढ़ी को देखते ही उसने पेड़ पर चढकर जाल बिछाया और चला गया। साँझ को सारे हंस लौट आए पेड़ पर उतरे तो बहेलिए के जाल में बुरी तरह फंस गए। जब वे जाल में फंस गए और फड़फड़ाने लगे तब उन्हें ताऊ की बुद्धिमानी और दूरदर्शिता का पता लगा। सब ताऊ की बात न मानने के लिए लज्जित थे और अपने आपको कोस रहे थे। ताऊ सबसे रुष्ट था और चुप बैठा था।
एक हंस ने हिम्मत करके कहा,
"ताऊ, हम मूर्ख हैं लेकिन अब हमसे मुँह मत फेरो।'
दूसरा हंस बोला,
"इस संकट से निकालने की तरकीब तू ही हमें बता सकता हैं। आगे हम तेरी कोई बात नहीं टालेंगे।"
सभी हंसों ने हामी भरी तब ताऊ ने उन्हें बताया,
"मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब बहेलिया आएगा, तब मुर्दा होने का नाटक करना। बहेलिया तुम्हें मुर्दा समझकर जाल से निकाल कर जमीन पर रखता जाएगा। वहां भी मरे समान पड़े रहना जैसे ही वह अन्तिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब उड़ जाना।"
सुबह बहेलिया आया। हंसो ने वैसा ही किया, जैसा ताऊ ने समझाया था। सचमुच बहेलिया हंसों को मुर्दा समझकर जमीन पर पटकता गया। सीटी की आवाज के साथ ही सारे हंस उड़ गए। बहेलिया अवाक् होकर देखता रह गया।
सीखः बुद्धिमानों की सलाह गंभीरता से लेनी चाहिए।
आपस की फूट / पंचतंत्र Panchtantra
प्राचीन समय में एक विचित्र पक्षी रहता था। उसका धड एक ही था, परन्तु सिर दो थे नाम था उसका भारुंड। एक शरीर होने के बावजूद उसके सिरों में एकता नहीं थी और न ही था तालमेल। वे एक दूसरे से बैर रखते थे। हर जीव सोचने समझने का काम दिमाग से करता हैं और दिमाग होता हैं सिर में दो सिर होने के कारण भारुंड के दिमाग भी दो थे। जिनमें से एक पूरब जाने की सोचता तो दूसरा पश्चिम फल यह होता था कि टांगें एक क़दम पूरब की ओर चलती तो अगला क़दम पश्चिम की ओर और भारूंड स्वयं को वहीं खडा पाता ता। भारुंड का जीवन बस दो सिरों के बीच रस्साकसी बनकर रह गया था।
एक दिन भारुंड भोजन की तलाश में नदी तट पर धूम रहा था कि एक सिर को नीचे गिरा एक फल नजर आया। उसने चोंच मारकर उसे चखकर देखा तो जीभ चटकाने लगा 'वाह! ऐसा स्वादिष्ट फल तो मैंने आज तक कभी नहीं खाया। भगवान ने दुनिया में क्या-क्या चीजें बनाई हैं।'
'अच्छा! जरा मैं भी चखकर देखूं।' कहकर दूसरे ने अपनी चोंच उस फल की ओर बढाई ही थी कि पहले सिर ने झटककर दूसरे सिर को दूर फेंका और बोला 'अपनी गंदी चोंच इस फल से दूर ही रख। यह फल मैंने पाया हैं और इसे मैं ही खाऊंगा।'
'अरे! हम् दोनों एक ही शरीर के भाग हैं। खाने-पीने की चीजें तो हमें बांटकर खानी चाहिए।' दूसरे सिर ने दलील दी। पहला सिर कहने लगा 'ठीक ! हम एक शरीर के भाग हैं। पेट हमार एक ही हैं। मैं इस फल को खाऊंगा तो वह पेट में ही तो जाएगा और पेट तेरा भी हैं।'
दूसरा सिर बोला 'खाने का मतलब केवल पेट भरना ही नहीं होता भाई। जीभ का स्वाद भी तो कोई चीज हैं। तबीयत को संतुष्टि तो जीभ से ही मिलती हैं। खाने का असली मजा तो मुंह में ही हैं।'
पहला सिर तुनकर चिढाने वाले स्वर में बोला 'मैंने तेरी जीभ और खाने के मजे का ठेका थोडे ही ले रखा हैं। फल खाने के बाद पेट से डकार आएगी। वह डकार तेरे मुंह से भी निकलेगी। उसी से गुजारा चला लेना। अब ज़्यादा बकवास न कर और मुझे शांति से फल खाने दे।' ऐसा कहकर पहला सिर चटकारे ले-लेकर फल खाने लगा।
इस घटना के बाद दूसरे सिर ने बदला लेने की ठान ली और मौके की तलाश में रहने लगा। कुछ दिन बाद फिर भारुंड भोजन की तलाश में घूम रहा था कि दूसरे सिर की नजर एक फल पर पडी। उसे जिस चीज की तलाश थी, उसे वह मिल गई थी। दूसरा सिर उस फल पर चोंच मारने ही जा रहा था कि कि पहले सिर ने चीखकर चेतावनी दी 'अरे, अरे! इस फल को मत खाना। क्या तुझे पता नहीं कि यह विषैला फल हैं? इसे खाने पर मॄत्यु भी हो सकती है।'
दूसरा सिर हंसा 'हे हे हे! तु चुपचाप अपना काम देख। तुझे क्या लेना हैं कि मैं क्या खा रहा हूं? भूल गया उस दिन की बात?'
पहले सिर ने समझाने कि कोशिश की 'तुने यह फल खा लिया तो हम दोनों मर जाएंगे।'
दूसरा सिर तो बदला लेने पर उतारु था। बोला 'मैने तेरे मरने-जीने का ठेका थोडे ही ले रखा हैं? मैं जो खाना चाहता हूं, वह खाऊंगा चाहे उसका नतीजा कुछ भी हो। अब मुझे शांति से विषैला फल खाने दे।'
दूसरे सिर ने सारा विषैला फल खा लिया और भारुंड तडप-तडपकर मर गया।
सीखः -- आपस की फूट सदा ले डूबती हैं।
चतुर खरगोश / पंचतंत्र Panchtantra
एक बड़े से जंगल में शेर रहता था। शेर गुस्से का बहुत तेज था। सभी जानवर उससे बहुत डरते थे। वह सभी जानवरों को परेशान करता था। वह आए दिन जंगलों में पशु-पक्षियों का शिकार करता था। शेर की इन हरकतों से सभी जानवर चिंतित थे।
एक दिन जंगल के सभी जानवरों ने एक सम्मेलन रखा। जानवरों ने सोचा शेर की इस रोज-रोज की परेशानी से तो क्यों न हम खुद ही शेर को भोजन ला देते हैं। इससे वह किसी को भी परेशान नहीं करेगा और खुश रहेगा।
सभी जानवरों ने एकसाथ शेर के सामने अपनी बात रखी। इससे शेर बहुत खुश हुआ। उसके बाद शेर ने शिकार करना भी बंद कर दिया।
एक दिन शेर को बहुत जोरों से भूख लग रही थी। एक चतुर खरगोश शेर का खाना लाते-लाते रास्ते में ही रुक गया। फिर थोड़ी देर बाद खरगोश शेर के सामने गया। शेर ने दहाड़ते हुए खरगोश से पूछा इतनी देर से क्यों आए? और मेरा खाना कहां है?
चतुर खरगोश बोला, शेरजी रास्ते में ही मुझे दूसरे शेर ने रोक लिया और आपका खाना भी खा गया। शेर बोला इस जंगल का राजा तो मैं हूं यह दूसरा शेर कहां से आ गया।
खरगोश ने बोला, चलो शेरजी मैं आपको बताता हूं वो कहां है। शेर खरगोश के साथ जंगल की तरफ गया। चतुर खरगोश शेर को बहुत दूर ले गया। खरगोश शेर को कुएं के पास ले गया और बोला शेरजी इसी के अंदर रहता है वह शेर।
शेर ने जैसी ही कुएं में देखा और दहाड़ लगाई। उसे उसी की परछाई दिख रही थी। वह समझा दूसरा शेर भी उसे ललकार रहा है। उसने वैसे ही कुएं में छलांग लगा दी। इस प्रकार जंगल के अन्य जानवरों को उससे मुक्ति मिली और खरगोश की सबने खूब सराहना की।
गजराज और मूषकराज / पंचतंत्र Panchtantra
गजराज और मूषकराज
प्राचीन काल में एक नदी के किनारे बसा नगर व्यापार का केन्द्र था। फिर आए उस नगर के बुरे दिन, जब एक वर्ष भारी वर्षा हुई। नदी ने अपना रास्ता बदल दिया।
लोगों के लिए पीने का पानी न रहा और देखते ही देखते नगर वीरान हो गया अब वह जगह केवल चूहों के लायक रह गई। चारों ओर चूहे ही चूहे नजर आने लगे। चूहो का पूरा साम्राज्य ही स्थापित हो गया। चूहों के उस साम्राज्य का राजा बना मूषकराज चूहा। चूहों का भाग्य देखो, उनके बसने के बाद नगर के बाहर जमीन से एक पानी का स्त्रोत फूट पडा और वह एक बडा जलाशय बन गया। नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। जंगल में अनगिनत हाथी रहते थे। उनका राजा गजराज नामक एक विशाल हाथी था। उस जंगल क्षेत्र में भयानक सूखा पडा। जीव-जन्तु पानी की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। भारी भरकम शरीर वाले हाथियों की तो दुर्दशा हो गई।
हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाने व दम तोडने लगे। गजराज खुद सूखे की समस्या से चिंतित था और हाथियों का कष्ट जानता था। एक दिन गजराज की मित्र चील ने आकर खबर दी कि खंडहर बने नगर के दूसरी ओर एक जलाशय हैं। गजराज ने सबको तुरंत उस जलाशय की ओर चलने का आदेश दिया। सैकडों हाथी प्यास बुझाने डोलते हुए चल पडे। जलाशय तक पहुंचने के लिए उन्हें खंडहर बने नगर के बीच से गुजरना पडा।
हाथियों के हजारों पैर चूहों को रौंदते हुए निकल गए। हजारों चूहे मारे गए। खंडहर नगर की सडकें चूहों के खून-मांस के कीचड से लथपथ हो गई। मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई। हाथियों का दल फिर उसी रास्ते से लौटा। हाथी रोज उसी मार्ग से पानी पीने जाने लगे। काफी सोचने-विचारने के बाद मूषकराज के मंत्रियों ने कहा
“महाराज, आपको ही जाकर गजराज से बात करनी चाहिए। वह दयालु हाथी हैं।”
मूषकराज हाथियों के वन में गया। एक बडे पेड के नीचे गजराज खडा था।
मूषकराज उसके सामने के बडे पत्थर के ऊपर चढा और गजराज को नमस्कार करके बोला
“गजराज को मूषकराज का नमस्कार। हे महान हाथी, मैं एक निवेदन करना चाहता हूं।”
आवाज गजराज के कानों तक नहीं पहुंच रही थी। दयालु गजराज उसकी बात सुनने के लिए नीचे बैठ गया और अपना एक कान पत्थर पर चढे मूषकराज के निकट ले जाकर बोला
“नन्हें मियां, आप कुछ कह रहे थे। कॄपया फिर से कहिए।”
मूषकराज बोला
“हे गजराज, मुझे चूहा कहते हैं। हम बडी संख्या में खंडहर बनी नगरी में रहते हैं। मैं उनका मूषकराज हूं। आपके हाथी रोज जलाशय तक जाने के लिए नगरी के बीच से गुजरते हैं। हर बार उनके पैरों तले कुचले जाकर हजारों चूहे मरते हैं। यह मूषक संहार बंद न हुआ तो हम नष्ट हो जाएंगे।”
गजराज ने दुख भरे स्वर में कहा
“मूषकराज, आपकी बात सुन मुझे बहुत शोक हुआ। हमें ज्ञान ही नहीं था कि हम इतना अनर्थ कर रहे हैं। हम नया रास्ता ढूढ लेंगे।”
मूषकराज कॄतज्ञता भरे स्वर में बोला
“गजराज, आपने मुझ जैसे छोटे जीव की बात ध्यान से सुनी। आपका धन्यवाद। गजराज, कभी हमारी जरुरत पडे तो याद जरुर कीजिएगा।”
गजराज ने सोचा कि यह नन्हा जीव हमारे किसी काम क्या आएगा। सो उसने केवल मुस्कुराकर मूषकराज को विदा किया। कुछ दिन बाद पडौसी देश के राजा ने सेना को मजबूत बनाने के लिए उसमें हाथी शामिल करने का निर्णय लिया। राजा के लोग हाथी पकडने आए। जंगल में आकर वे चुपचाप कई प्रकार के जाल बिछाकर चले जाते हैं। सैकडों हाथी पकड लिए गए। एक रात हाथियों के पकडे जाने से चिंतित गजराज जंगल में घूम रहे थे कि उनका पैर सूखी पत्तियों के नीचे छल से दबाकर रखे रस्सी के फंदे में फंस जाता हैं। जैसे ही गजराज ने पैर आगे बढाया रस्सा कस गया। रस्से का दूसरा सिरा एक पेड के मोटे तने से मजबूती से बंधा था। गजराज चिंघाडने लगा। उसने अपने सेवकों को पुकारा, लेकिन कोई नहीं आया।कौन फंदे में फंसे हाथी के निकट आएगा? एक युवा जंगली भैंसा गजराज का बहुत आदर करता था। जब वह भैंसा छोटा था तो एक बार वह एक गड्ढे में जा गिरा था। उसकी चिल्लाहट सुनकर गजराज ने उसकी जाअन बचाई थी। चिंघाड सुनकर वह दौडा और फंदे में फंसे गजराज के पास पहुंचा। गजराज की हालत देख उसे बहुत धक्का लगा। वह चीखा
“यह कैसा अन्याय हैं? गजराज, बताइए क्या करुं? मैं आपको छुडाने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं।”
गजराज बोले
“बेटा, तुम बस दौडकर खंडहर नगरी जाओ और चूहों के राजा मूषकराजा को सारा हाल बताना। उससे कहना कि मेरी सारी आस टूट चुकी हैं।
भैंसा अपनी पूरी शक्ति से दौडा-दौडा मूषकराज के पास गया और सारी बात बताई। मूषकराज तुरंत अपने बीस-तीस सैनिकों के साथ भैंसे की पीठ पर बैठा और वो शीघ्र ही गजराज के पास पहुंचे। चूहे भैंसे की पीठ पर से कूदकर फंदे की रस्सी कुतरने लगे। कुछ ही देर में फंदे की रस्सी कट गई व गजराज आजाद हो गए।
सीखः आपसी सदभाव व प्रेम सदा एक दूसरे के कष्टों को हर लेते हैं।
दोस्ती की परख / पंचतंत्र Panchtantra
एक जंगल था । गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे । उन चारों में मित्रता हो गई । वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था । एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी ।
खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"
उन्होंने कहा - "अच्छा ।"
तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।
एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा -
"तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"
गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया ।
कहने लगा - "बड़े भाई ! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"
घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे ? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा ? तुम कोई और उपाय करो ।
तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे ! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"
गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।
बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया ! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया ।
वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"
(सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है। दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।)
बोलने वाली मांद / पंचतंत्र Panchtantra
किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक बार वह दिन-भर भटकता रहा, किंतु भोजन के लिए कोई जानवर नहीं मिला। थककर वह एक गुफा के अंदर आकर बैठ गया। उसने सोचा कि रात में कोई न कोई जानवर इसमें अवश्य आएगा। आज उसे ही मारकर मैं अपनी भूख शांत करुँगा।
उस गुफा का मालिक एक सियार था। वह रात में लौटकर अपनी गुफा पर आया। उसने गुफा के अंदर जाते हुए शेर के पैरों के निशान देखे। उसने ध्यान से देखा। उसने अनुमान लगाया कि शेर अंदर तो गया, परंतु अंदर से बाहर नहीं आया है। वह समझ गया कि उसकी गुफा में कोई शेर छिपा बैठा है।
चतुर सियार ने तुरंत एक उपाय सोचा। वह गुफा के भीतर नहीं गया।उसने द्वार से आवाज लगाई-
‘ओ मेरी गुफा, तुम चुप क्यों हो? आज बोलती क्यों नहीं हो? जब भी मैं बाहर से आता हूँ, तुम मुझे बुलाती हो। आज तुम बोलती क्यों नहीं हो?’
गुफा में बैठे हुए शेर ने सोचा, ऐसा संभव है कि गुफा प्रतिदिन आवाज देकर सियार को बुलाती हो। आज यह मेरे भय के कारण मौन है। इसलिए आज मैं ही इसे आवाज देकर अंदर बुलाता हूँ। ऐसा सोचकर शेर ने अंदर से आवाज लगाई और कहा-
‘आ जाओ मित्र, अंदर आ जाओ।’
आवाज सुनते ही सियार समझ गया कि अंदर शेर बैठा है। वह तुरंत वहाँ से भाग गया। और इस तरह सियार ने चालाकी से अपनी जान बचा ली।
लालच बुरी बला है / पंचतंत्र Panchtantra
किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती साधारण ही थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह इसी प्रकार अपने खेत पर वृक्ष की शीतल छाया में लेटा हुआ था। सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का बिल देखा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा था।
उसको देखकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का देवता है। मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा करूंगा। यह विचार मन में आते ही वह उठा और कहीं से जाकर दूध मांग लाया।
उसे उसने एक मिट्टी के बरतन में रखा और बिल के समीप जाकर बोला,
“हे क्षेत्रपाल! आज तक मुझे आपके विषय में मालूम नहीं था, इसलिए मैं किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं कर पाया। आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे धन-धान्य से समृद्ध कीजिए।”
इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उस दूध को वहीं पर रख दिया और फिर अपने घर को लौट गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब वह अपने खेत पर आया तो सर्वप्रथम उसी स्थान पर गया। वहां उसने देखा कि जिस बरतन में उसने दूध रखा था उसमें एक स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।
उसने उस मुद्रा को उठाकर रख लिया। उस दिन भी उसने उसी प्रकार सर्प की पूजा की और उसके लिए दूध रखकर चला गया। अगले दिन प्रातःकाल उसको फिर एक स्वर्णमुद्रा मिली।इस प्रकार अब नित्य वह पूजा करता और अगले दिन उसको एक स्वर्णमुद्रा मिल जाया करती थी।
कुछ दिनों बाद उसको किसी कार्य से अन्य ग्राम में जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र को उस स्थान पर दूध रखने का निर्देश दिया। तदानुसार उस दिन उसका पुत्र गया और वहां दूध रख आया। दूसरे दिन जब वह पुनः दूध रखने के लिए गया तो देखा कि वहां स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।
उसने उस मुद्रा को उठा लिया और वह मन ही मन सोचने लगा कि निश्चित ही इस बिल के अंदर स्वर्णमुद्राओं का भण्डार है। मन में यह विचार आते ही उसने निश्चय किया कि बिल को खोदकर सारी मुद्राएं ले ली जाएं। सर्प का भय था। किन्तु जब दूध पीने के लिए सर्प बाहर निकला तो उसने उसके सिर पर लाठी का प्रहार किया।
इससे सर्प तो मरा नहीं और इस प्रकार से क्रुद्ध होकर उसने ब्राह्मण-पुत्र को अपने विषभरे दांतों से काटा कि उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके सम्बधियों ने उस लड़के को वहीं उसी खेत पर जला दिया।
कहा भी जाता है लालच का फल कभी मीठा नहीं होता है।
खरगोश / पंचतंत्र Panchtantra
एक गुफा में एक बड़ा ताकतवर शेर रहता था। वह प्रतिदिन जंगल के अनेक जानवरों को मार डालता था। उस वन के सारे जानवर उसके डर से काँपते रहते थे। एक बार जानवरों ने सभा की। उन्होंने निश्चय किया कि शेर के पास जाकर उससे निवेदन किया जाए। जानवरों के कुछ चुने हुए प्रतिनिधि शेर के पास गए। जानवरों ने उसे प्रणाम किया।फिर एक प्रतिनिधि ने हाथ जोड़कर निवेदन किया,
‘आप इस जंगल के राजा है। आप अपने भोजन के लिए प्रतिदिन अनेक जानवरों को मार देते हैं, जबकि आपका पेट एक जानवर से ही भर जाता है।’
शेर ने गरजकर पूछा- ‘तो मैं क्या कर सकता हूँ?’
सभी जानवरों में निवेदन किया, ‘महाराज, आप भोजन के लिए कष्ट न करें। आपके भोजन के लिए हम स्वयं हर दिन एक जानवर को आपकी सेवा में भेज दिया करेंगे। आपका भोजन हरदिन समय पर आपकी सेवा से पहुँच जाया करेगा।’
शेर ने कुछ देर सोचा और कहा-
‘यदि तुम लोग ऐसा ही चाहते हो तो ठीक है। किंतु ध्यान रखना कि इस नियम में किसी प्रकार की ढील नहीं आनी चाहिए।’इसके बाद हर दिन एक पशु शेर की सेवा में भेज दिया जाता। एक दिन शेर के पास जाने की बारी एक खरगोश की आ गई।
खरगोश बुद्धिमान था।उसने मन-ही मन सोचा- ‘अब जीवन तो शेष है नहीं। फिर मैं शेर को खुश करने का उपाय क्यों करुँ? ऐसा सोचकर वह एक कुएँ पर आराम करने लगा। इसी कारण शेर के पास पहुँचने में उसे बहुत देर हो गई।’खरगोश जब शेर के पास पहुँचा तो वह भूख के कारण परेशान था।
खरगोश को देखते ही शेर जोर से गरजा और कहा, ‘एक तो तू इतना छोटा-सा खरगोश है और फिर इतनी देर से आया है। बता, तुझे इतनी देर कैसे हुई?’
खरगोश बनावटी डर से काँपते हुए बोला- ‘महाराज, मेरा कोई दोष नहीं है। हम दो खरगोश आपकी सेवा के लिए आए थे। किंतु रास्ते में एक शेर ने हमें रोक लिया। उसने मुझे पकड़ लिया।’
मैंने उससे कहा- ‘यदि तुमने मुझे मार दिया तो हमारे राजा तुम पर नाराज होंगे और तुम्हारे प्राण ले लेंगे।’
उसने पूछा-‘कौन है तुम्हारा राजा?’ इस पर मैंने आपका नाम बता दिया। यह सुनकर वह शेर क्रोध से भर गया।
वह बोला, ‘तुम झूठ बोलते हो।’
इस पर खरगोश ने कहा, ‘नहीं, मैं सच कहता हूँ तुम मेरे साथी को बंधक रख लो। मैं अपने राजा को तुम्हारे पास लेकर आता हूँ।’
खरगोश की बात सुनकर दुर्दांत शेर का क्रोध बढ़ गया। उसने गरजकर कहा, ‘चलो, मुझे दिखाओ कि वह दुष्ट कहाँ रहता है?’
खरगोश शेर को लेकर एक कुँए के पास पहुँचा।
खरगोश ने चारों ओर देखा और कहा, महाराज, ऐसा लगता है कि आपको देखकर वह शेर अपने किले में घुस गया।’
शेर ने पूछा, ‘कहां है उसका किला?’
खरगोश ने कुएँ को दिखाकर कहा, ‘महाराज, यह है उस शेर का किला।’
खरगोश स्वयं कुएँ की मुँडेर पर खड़ा हो गया। शेर भी मुँडेर पर चढ़ गया। दोनों की परछाई कुएँ के पानी में दिखाई देने लगी।
खरगोश ने शेर से कहा, ‘महाराज, देखिए। वह रहा मेरा साथी खरगोश। उसके पास आपका शत्रु खड़ा है।’
शेर ने दोनों को देखा। उसने भीषण गर्जन किया। उसकी गूँज कुएँ से बाहर आई। बस, फिर क्या था! देखते ही देखते शेर ने अपने शत्रु को पकड़ने के लिए कुएँ में छलाँग लगा दी और वहीं डूबकर मर गया।
कामचोर / पंचतंत्र Panchtantra
वन में एक बन्दर था जो जानवरों में सबसे चालाक था. एक दिन हाथी और भालू एक साथ बैठे थे वे सभी परेशान थे . उनकी परेशानी यह थी कि जब दूरदराज से उनके नाम की कोई चिट्ठी आती थी तो उसे लाने में जिराफ लाने में काफी समय लगाता था . वगैर पैसे दिए कोई भी चिट्ठी उन्हें नही मिलती थी.
एक दिन सबने बैठकर एकमत से सहमत होकर यह निश्चय किया कि वन का डाकिया बन्दर को बनाया जाए क्योकि वह चुस्त और चालाक भी है . उसी दिन से बन्दर को वन का डाकिया बना दिया गया . बन्दर समय पर सभी को डाक लाकर दे देता था . बन्दर ने देखा कि उसे सभी चाहते है तो उसने पैसो की जगह हर एक से केला लेना शुरू कर दिया . धीरे धीरे बन्दर कामचोर होता गया और उसकी कामचोरी बढती गई . फ़िर धीरे धीरे उसने सभी से पैसे लेना शुरू कर दिया.
जब सभी ने देखा की बन्दर कामचोर हो गया है और सभी से पैसे लेने लगा है और सबने बैठकर वन में एक बैठक आयोजित की और सर्वसम्मति से निर्णय पारित किया कि अब बन्दर को हटा दिया जाए और भालू को डाकिया बना दिया
परन्तु इसी बीच हाथी बीच मे कूंद पड़ा और बोला अब इस जंगल में कोई डाकिया नही बनेगा . तो सभी जानवरों ने उससे कहा कि नया डाकिया नही बनेगा तो हम लोगो को चिट्ठी कैसे मिलेगी . हाथी ने कहा - अब शहर में अपने नाते रिश्तेदारों दोस्तों भाई बहिनों और माता पिता को यह संदेश भिजवा दो कि वे अब चिट्ठी न लिखे तो आप सभी आगे देखेंगे कि बन्दर घर में बैठा रहेगा.
भालू ने कहा भैय्या आपका आइडिया बहुत अच्छा है मगर अगर शहर में किसी को कुछ हो गया तो ख़बर कैसे पता लगेगी . सभी जानवर एक साथ बोले हाँ हाँ बताओ कैसे पता चलेगा ?
हाथी ने कहा - सब शांत होकर मेरी बात सुनो हम सब मिलकर एक साथ वन में एक बूथ खोलेंगे और जब नंबर लगायेंगे तो बात हो जाया करेग . सभी जानवर अपने अपने घरो में टेलीफोन लगा ले जिससे उन्हें कभी डाकिये के भरोसे रहना नही पड़ेगा यह सुनकर सभी जानवर बहुत खुश हो गए . . यह सब बातें बन्दर सुन रहा था उसे अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने बहुत पश्चाताप किया और उसने सभी जानवरों से माफ़ी मांगी.
(उपरोक्त कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपना काम ईमानदारी से संपादित करना चाहिए और कामचोर नही बनना चाहिए . ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है)
दोस्ती की परख / पंचतंत्र Panchtantra
एक जंगल था । गाय, घोड़ा, गधा और बकरी वहाँ चरने आते थे । उन चारों में मित्रता हो गई । वे चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहा करते थे । पेड़ के नीचे एक खरगोश का घर था । एक दिन उसने उन चारों की मित्रता देखी ।
खरगोश पास जाकर कहने लगा - "तुम लोग मुझे भी मित्र बना लो ।"
उन्होंने कहा - "अच्छा ।"
तब खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ । खरगोश हर रोज़ उनके पास आकर बैठ जाता । कहानियाँ सुनकर वह भी मन बहलाया करता था ।
एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था । अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज़ सुनाई दी । खरगोश ने गाय से कहा -
"तुम मुझे पीठ पर बिठा लो । जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना ।"
गाय ने कहा - "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है ।"तब खरगोश घोड़े के पास गया ।
कहने लगा - "बड़े भाई ! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तोँ से बचाओ । तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे ।"
घोड़े ने कहा - "मुझे बैठना नहीं आता । मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ । मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे ? मेरे पाँव भी दुख रहे हैं । इन पर नई नाल चढ़ी हैं । मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा ? तुम कोई और उपाय करो ।
तब खरगोश ने गधे के पास जाकर कहा - "मित्र गधे ! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो । मुझे पीठ पर बिठा लो । जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना ।"
गधे ने कहा - "मैं घर जा रहा हूँ । समय हो गया है । अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा ।"तब खरगोश बकरी की तरफ़ चला ।
बकरी ने दूर से ही कहा - "छोटे भैया ! इधर मत आना । मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है । कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ ।"इतने में कुत्ते पास अ गए । खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा । कुत्ते इतनी तेज़ दौड़ न सके । खरगोश झाड़ी में जाकर छिप गया ।
वह मन में कहने लगा - "हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए ।"
(सीख - दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है। दोस्ती की परख मुसीबत मे ही होती है।)
धोखेबाज का अंत / पंचतंत्र Panchtantra
किसी स्थान पर एक बहुत बड़ा तालाब था। वहीं एक बूढ़ा बगुला भी रहता था। बुढ़ापे के कारण वह कमजोर हो गया था। इस कारण मछलियाँ पकड़ने में असमर्थ था। वह तालाब के किनारे बैठकर, भूख से व्याकुल होकर आँसू बहाता रहता था।
एक बार एक केकड़ा उसके पास आया। बगुले को उदास देखकर उसने पूछा, ‘मामा, तुम रो क्यों रहे हो? क्या तुमने आजकल खाना-पीना छोड़ दिया है?॥अचानक यह क्या हो गया?’
बगुले ने बताया- ‘पुत्र, मेरा जन्म इसी तालाब के पास हुआ था। यहीं मैंने इतनी उम्र बिताई। अब मैंने सुना है कि यहाँ बारह वर्षों तक पानी नहीं बरसेगा।’
केकड़े ने पूछा, ‘तुमसे ऐसा किसने कहा है?’
बगुले ने कहा- ‘मुझे एक ज्योतिषी ने यह बात बताई है। इस तालाब में पानी पहले ही कम है। शेष पानी भी जल्दी ही सूख जाएगा। तालाब के सूख जाने पर इसमें रहने वाले प्राणी भी मर जाएँगे। इसी कारण मैं परेशान हूँ।’
बगुले की यह बात केकड़े ने अपने साथियों को बताई। वे सब बगुले के पास पहुँचे। उन्होंने बगुले से पूछा-‘मामा, ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे हम सब बच सकें।’
बगुले ने बताया-‘यहां से कुछ दूर एक बड़ा सरोवर है। यदि तुम लोग वहाँ जाओ तो तुम्हारे प्राणों की रक्षा हो सकती है।’
सभी ने एक साथ पूछा-‘हम उस सरोवर तक पहुँचेंगे कैसे?’
चालाक बगुले ने कहा-‘मैं तो अब बूढ़ा हो गया हूँ। तुम लोग चाहो तो मैं तुम्हें पीठ पर बैठाकर उस तालाब तक ले जा सकता हूँ।’सभी बगुले की पीठ पर चढ़कर दूसरे तालाब में जाने के लिए तैयार हो गए। दुष्ट बगुला प्रतिदिन एक मछली को अपनी पीठ पर चढ़ाकर ले जाता और शाम को तालाब पर लौट आता। इस प्रकार उसकी भोजन की समस्या हल हो गई।
एक दिन केकड़े ने कहा-‘मामा, अब मेरी भी तो जान बचाइए।’
बगुले ने सोचा कि मछलियाँ तो वह रोज खाता है। आज केकड़े का मांस खाएगा। ऐसा सोचकर उसने केकड़े को अपनी पीठ पर बैठा लिया। उड़ते हुए वह उस बड़े पत्थर पर उतरा, जहाँ वह हर दिन मछलियों को खाया करता था।केकड़े ने वहाँ पर पड़ी हुई हड्डियों को देखा। उसने बगुले से पूछा-‘मामा, सरोवर कितनी दूर है? आप तो थक गए होंगे।’
बगुले ने केकड़े को मूर्ख समझकर उत्तर दिया-‘अरे, कैसा सरोवर! यह तो मैंने अपने भोजन का उपाय सोचा था। अब तू भी मरने के लिए तैयार हो जा। मैं इस पत्थर पर बैठकर तुझे खा जाऊँगा।’
इतना सुनते ही केकड़े ने बगुले की गर्दन जकड़ ली और अपने तेज दाँतों से उसे काट डाला। बगुला वहीं मर गया।
केकड़ा किसी तरह धीरे-धीरे अपने तालाब तक पहुँचा। मछलियों ने जब उसे देखा तो पूछा-‘अरे, केकड़े भाई, तुम वापस कैसे आ गए। मामा को कहाँ छोड़ आए? हम तो उनके इंतजार में बैठे हैं।’
यह सुनकर केकड़ा हँसने लगा। उसने बताया-‘वह बगुला महाठग था। उसने हम सभी को धोखा दिया। वह हमारे साथियों को पास की एक चट्टान पर ले जाकर खा जाता था। मैंने उस धूर्त्त बगुले को मार दिया है। अब डरने की कोई बात नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल भी होता है।
चतुराई से कठिन काम भी संभव / पंचतंत्र Panchtantra
एक जंगल में महाचतुरक नामक सियार रहता था। एक दिन जंगल में उसने एक मरा हुआ हाथी देखा। उसकी बांछे खिल गईं। उसने हाथी के मृत शरीर पर दांत गड़ाया पर चमड़ी मोटी होने की वजह से, वह हाथी को चीरने में नाकाम रहा।
वह कुछ उपाय सोच ही रहा था कि उसे सिंह आता हुआ दिखाई दिया। आगे बढ़कर उसने सिंह का स्वागत किया और हाथ जोड़कर कहा,
“स्वामी आपके लिए ही मैंने इस हाथी को मारकर रखा है, आप इस हाथी का मांस खाकर मुझ पर उपकार कीजिए।” सिंह ने कहा, “मैं तो किसी के हाथों मारे गए जीव को खाता नहीं हूं, इसे तुम ही खाओ।”
सियार मन ही मन खुश तो हुआ पर उसकी हाथी की चमड़ी को चीरने की समस्या अब भी हल न हुई थी।थोड़ी देर में उस तरफ एक बाघ आ निकला। बाघ ने मरे हाथी को देखकर अपने होंठ पर जीभ फिराई। सियार ने उसकी मंशा भांपते हुए कहा,
“मामा आप इस मृत्यु के मुंह में कैसे आ गए? सिंह ने इसे मारा है और मुझे इसकी रखवाली करने को कह गया है। एक बार किसी बाघ ने उनके शिकार को जूठा कर दिया था तब से आज तक वे बाघ जाति से नफरत करने लगे हैं। आज तो हाथी को खाने वाले बाघ को वह जरुर मार गिराएंगे।”
यह सुनते ही बाघ वहां से भाग खड़ा हुआ। पर तभी एक चीता आता हुआ दिखाई दिया। सियार ने सोचा चीते के दांत तेज होते हैं। कुछ ऐसा करूं कि यह हाथी की चमड़ी भी फाड़ दे और मांस भी न खाए। उसने चीते से कहा,
“प्रिय भांजे, इधर कैसे निकले? कुछ भूखे भी दिखाई पड़ रहे हो।”
सिंह ने इसकी रखवाली मुझे सौंपी है, पर तुम इसमें से कुछ मांस खा सकते हो। मैं जैसे ही सिंह को आता हुआ देखूंगा, तुम्हें सूचना दे दूंगा, तुम सरपट भाग जाना”।
पहले तो चीते ने डर से मांस खाने से मना कर दिया, पर सियार के विश्वास दिलाने पर राजी हो गया।चीते ने पलभर में हाथी की चमड़ी फाड़ दी।
जैसे ही उसने मांस खाना शुरू किया कि दूसरी तरफ देखते हुए सियार ने घबराकर कहा,
“भागो सिंह आ रहा है”।
इतना सुनना था कि चीता सरपट भाग खड़ा हुआ। सियार बहुत खुश हुआ। उसने कई दिनों तक उस विशाल जानवर का मांस खाया।सिर्फ अपनी सूझ-बूझ से छोटे से सियार ने अपनी समस्या का हल निकाल लिया।
इसीलिए कहते हैं कि बुद्धि के प्रयोग से कठिन से कठिन काम भी संभव हो जाता है।
आवाज ने खोला भेद / पंचतंत्र Panchtantra
किसी नगर में एक धोबी रहता था। अच्छा चारा न मिलने के कारण उसका गधा बहुत कमजोर हो गया था। एक दिन धोबी को जंगल में बाघ की एक खाल मिल गई। उसने सोचा कि रात में इस खाल को ओढ़ाकर मैं गधे को खेतों में छोड़ दिया करुँगा।
गाँववाले इसे बाघ समझेंगे और डर से इसके पास नहीं आएँगे।
खेतों में चरकर यह खूब मोटा-ताजा हो जाएगा। एक रात गधा बाघ की खाल ओढ़े खेत में चर रहा था।
तभी उसने दूर से किसी गधी का रेंकना सुना। उसकी आवाज सुनकर गधा प्रसन्न हो उठा और मौज में आकर स्वयं भी रेंकने लगा।
गधे की आवाज सुनते ही खेतों के रखवालों ने उसे घर लिया और पीट-पीटकर जान से मार डाला।
इसलिए कहते हैं अपनी पहचान नहीं खोनी चाहिए। कभी-कभी यह खतरनाक भी साबित होता है।
चंचलता से बुद्धि का नाश Panchtantra
किसी तालाब में कम्बुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था। तालाब के किनारे रहने वाले संकट और विकट नामक हंस से उसकी गहरी दोस्ती थी। तालाब के किनारे तीनों हर रोज खूब बातें करते और शाम होने पर अपने-अपने घरों को चल देते। एक वर्ष उस प्रदेश में जरा भी बारिश नहीं हुई। धीरे-धीरे वह तालाब भी सूखने लगा।
अब हंसों को कछुए की चिंता होने लगी। जब उन्होंने अपनी चिंता कछुए से कही तो कछुए ने उन्हें चिंता न करने को कहा। उसने हंसों को एक युक्ति बताई। उसने उनसे कहा कि सबसे पहले किसी पानी से लबालब तालाब की खोज करें फिर एक लकड़ी के टुकड़े से लटकाकर उसे उस तालाब में ले चलें।
उसकी बात सुनकर हंसों ने कहा कि वह तो ठीक है पर उड़ान के दौरान उसे अपना मुंह बंद रखना होगा। कछुए ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वह किसी भी हालत में अपना मुंह नहीं खोलेगा।
कछुए ने लकड़ी के टुकड़े को अपने दांत से पकड़ा फिर दोनो हंस उसे लेकर उड़ चले। रास्ते में नगर के लोगों ने जब देखा कि एक कछुआ आकाश में उड़ा जा रहा है तो वे आश्चर्य से चिल्लाने लगे।
लोगों को अपनी तरफ चिल्लाते हुए देखकर कछुए से रहा नहीं गया। वह अपना वादा भूल गया। उसने जैसे ही कुछ कहने के लिए अपना मुंह खोला कि आकाश से गिर पड़ा। ऊंचाई बहुत ज्यादा होने के कारण वह चोट झेल नहीं पाया और अपना दम तोड़ दिया।
इसीलिए कहते हैं कि बुद्धिमान भी अगर अपनी चंचलता पर काबू नहीं रख पाता है तो परिणाम काफी बुरा होता है।
गलत मार्ग का परिणाम / पंचतंत्र Panchtantra
किसी ग्राम में किसान दम्पती रहा करते थे। किसान तो वृद्ध था पर उसकी पत्नी युवती थी। अपने पति से संतुष्ट न रहने के कारण किसान की पत्नी सदा पर-पुरुष की टोह में रहती थी, इस कारण एक क्षण भी घर में नहीं ठहरती थी। एक दिन किसी ठग ने उसको घर से निकलते हुए देख लिया।
उसने उसका पीछा किया और जब देखा कि वह एकान्त में पहुँच गई तो उसके सम्मुख जाकर उसने कहा,
“देखो, मेरी पत्नी का देहान्त हो चुका है। मैं तुम पर अनुरक्त हूं। मेरे साथ चलो।”
वह बोली, “यदि ऐसी ही बात है तो मेरे पति के पास बहुत-सा धन है, वृद्धावस्था के कारण वह हिलडुल नहीं सकता। मैं उसको लेकर आती हूं, जिससे कि हमारा भविष्य सुखमय बीते।”
“ठीक है जाओ। कल प्रातःकाल इसी समय इसी स्थान पर मिल जाना।”
इस प्रकार उस दिन वह किसान की स्त्री अपने घर लौट गई। रात होने पर जब उसका पति सो गया, तो उसने अपने पति का धन समेटा और उसे लेकर प्रातःकाल उस स्थान पर जा पहुंची। दोनों वहां से चल दिए। दोनों अपने ग्राम से बहुत दूर निकल आए थे कि तभी मार्ग में एक गहरी नदी आ गई।
उस समय उस ठग के मन में विचार आया कि इस औरत को अपने साथ ले जाकर मैं क्या करूंगा। और फिर इसको खोजता हुआ कोई इसके पीछे आ गया तो वैसे भी संकट ही है। अतः किसी प्रकार इससे सारा धन हथियाकर अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिए। यह विचार कर उसने कहा,
“नदी बड़ी गहरी है। पहले मैं गठरी को उस पार रख आता हूं, फिर तुमको अपनी पीठ पर लादकर उस पार ले चलूंगा। दोनों को एक साथ ले चलना कठिन है।”
“ठीक है, ऐसा ही करो।” किसान की स्त्री ने अपनी गठरी उसे पकड़ाई तो ठग बोला,
“अपने पहने हुए गहने-कपड़े भी दे दो, जिससे नदी में चलने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होगी। और कपड़े भीगेंगे भी नहीं।”
उसने वैसा ही किया। उन्हें लेकर ठग नदी के उस पार गया तो फिर लौटकर आया ही नहीं।
वह औरत अपने कुकृत्यों के कारण कहीं की नहीं रही।
इसलिए कहते हैं कि अपने हित के लिए गलत कर्मों का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।
वंश की रक्षा / पंचतंत्र Panchtantra
किसी पर्वत प्रदेश में मन्दविष नाम का एक वृद्ध सर्प रहा करता था। एक दिन वह विचार करने लगा कि ऐसा क्या उपाय हो सकता है, जिससे बिना परिश्रम किए ही उसकी आजीविका चलती रहे। उसके मन में तब एक विचार आया।
वह समीप के मेढकों से भरे तालाब के पास चला गया। वहां पहुँचकर वह बड़ी बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगा। उसे इस प्रकार घूमते देखकर तालाब के किनारे एक पत्थर पर बैठे मेढक को आश्चर्य हुआ तो उसने पूछा,
“मामा! आज क्या बात है? शाम हो गई है, किन्तु तुम भोजन-पानी की व्यवस्था नहीं कर रहे हो?”
सर्प बड़े दुःखी मन से कहने लगा,
“बेटे! क्या करूं, मुझे तो अब भोजन की अभिलाषा ही नहीं रह गई है। आज बड़े सवेरे ही मैं भोजन की खोज में निकल पड़ा था। एक सरोवर के तट पर मैंने एक मेढक को देखा। मैं उसको पकड़ने की सोच ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया। समीप ही कुछ ब्राह्मण स्वाध्याय में लीन थे, वह उनके मध्य जाकर कहीं छिप गया।” उसको तो मैंने फिर देखा नहीं। किन्तु उसके भ्रम में मैंने एक ब्राह्मण के पुत्र के अंगूठे को काट लिया। उससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके पिता को इसका बड़ा दुःख हुआ और उस शोकाकुल पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा,
“दुष्ट! तुमने मेरे पुत्र को बिना किसी अपराध के काटा है, अपने इस अपराध के कारण तुमको मेढकों का वाहन बनना पड़ेगा।” “बस, तुम लोगों के वाहन बनने के उद्देश्य से ही मैं यहां तुम लोगों के पास आया हूं।”
मेढक सर्प से यह बात सुनकर अपने परिजनों के पास गया और उनको भी उसने सर्प की वह बात सुना दी। इस प्रकार एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कानों में जाती हुई यह बात सब मेढकों तक पहुँच गई। उनके राजा जलपाद को भी इसका समाचार मिला। उसको यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। सबसे पहले वही सर्प के पास जाकर उसके फन पर चढ़ गया। उसे चढ़ा हुआ देखकर अन्य सभी मेढक उसकी पीठ पर चढ़ गए। सर्प ने किसी को कुछ नहीं कहा।
मन्दविष ने उन्हें भांति-भांति के करतब दिखाए। सर्प की कोमल त्वचा के स्पर्श को पाकर जलपाद तो बहुत ही प्रसन्न हुआ। इस प्रकार एक दिन निकल गया। दूसरे दिन जब वह उनको बैठाकर चला तो उससे चला नहीं गया।
उसको देखकर जलपाद ने पूछा, “क्या बात है, आज आप चल नहीं पा रहे हैं?”
“हां, मैं आज भूखा हूं इसलिए चलने में कठिनाई हो रही है।” जलपाद बोला,
“ऐसी क्या बात है। आप साधारण कोटि के छोटे-मोटे मेढकों को खा लिया कीजिए।”
इस प्रकार वह सर्प नित्यप्रति बिना किसी परिश्रम के अपना भोजन पा गया। किन्तु वह जलपाद यह भी नहीं समझ पाया कि अपने क्षणिक सुख के लिए वह अपने वंश का नाश करने का भागी बन रहा है। सभी मेढकों को खाने के बाद सर्प ने एक दिन जलपाद को भी खा लिया। इस तरह मेढकों का समूचा वंश ही नष्ट हो गया।
इसीलिए कहते हैं कि अपने हितैषियों की रक्षा करने से हमारी भी रक्षा होती है।
बकरा और ब्राह्मण / पंचतंत्र Panchtantra
किसी गांव में सम्भुदयाल नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना बनाई।
एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा,
“पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।”
ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा है।”
पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।”
थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा, “पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए।”
पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया। आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला।
उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है।
थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया। इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई।
इसीलिए कहते हैं कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है।
अतः अपने दिमाग से काम लें और अपने आप पर विश्वास करें।
जैसे को तैसा / पंचतंत्र Panchtantra
किसी नगर में एक व्यापारी का पुत्र रहता था। दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति समाप्त हो गई। इसलिए उसने सोचा कि किसी दूसरे देश में जाकर व्यापार किया जाए। उसके पास एक भारी और मूल्यवान तराजू था। उसका वजन बीस किलो था। उसने अपने तराजू को एक सेठ के पास धरोहर रख दिया और व्यापार करने दूसरे देश चला गया।
कई देशों में घूमकर उसने व्यापार किया और खूब धन कमाकर वह घर वापस लौटा। एक दिन उसने सेठ से अपना तराजू माँगा। सेठ बेईमानी पर उतर गया। वह बोला,
‘भाई तुम्हारे तराजू को तो चूहे खा गए।’ व्यापारी पुत्र ने मन-ही-मन कुछ सोचा और सेठ से बोला-
‘सेठ जी, जब चूहे तराजू को खा गए तो आप कर भी क्या कर सकते हैं! मैं नदी में स्नान करने जा रहा हूँ। यदि आप अपने पुत्र को मेरे साथ नदी तक भेज दें तो बड़ी कृपा होगी।’
सेठ मन-ही-मन भयभीत था कि व्यापारी का पुत्र उस पर चोरी का आरोप न लगा दे। उसने आसानी से बात बनते न देखी तो अपने पुत्र को उसके साथ भेज दिया।स्नान करने के बाद व्यापारी के पुत्र ने लड़के को एक गुफ़ा में छिपा दिया। उसने गुफा का द्वार चट्टान से बंद कर दिया और अकेला ही सेठ के पास लौट आया।
सेठ ने पूछा, ‘मेरा बेटा कहाँ रह गया?’ इस पर व्यापारी के पुत्र ने उत्तर दिया,
‘जब हम नदी किनारे बैठे थे तो एक बड़ा सा बाज आया और झपट्टा मारकर आपके पुत्र को उठाकर ले गया।’ सेठ क्रोध से भर गया।
उसने शोर मचाते हुए कहा-‘तुम झूठे और मक्कार हो। कोई बाज इतने बड़े लड़के को उठाकर कैसे ले जा सकता है? तुम मेरे पुत्र को वापस ले आओ नहीं तो मैं राजा से तुम्हारी शिकायत करुँगा’
व्यापारी पुत्र ने कहा, ‘आप ठीक कहते हैं।’ दोनों न्याय पाने के लिए राजदरबार में पहुँचे।
सेठ ने व्यापारी के पुत्र पर अपने पुत्र के अपहरण का आरोप लगाया। न्यायाधीश ने कहा, ‘तुम सेठ के बेटे को वापस कर दो।’
इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा कि ‘मैं नदी के तट पर बैठा हुआ था कि एक बड़ा-सा बाज झपटा और सेठ के लड़के को पंजों में दबाकर उड़ गया। मैं उसे कहाँ से वापस कर दूँ?’
न्यायाधीश ने कहा, ‘तुम झूठ बोलते हो। एक बाज पक्षी इतने बड़े लड़के को कैसे उठाकर ले जा सकता है?’
इस पर व्यापारी के पुत्र ने कहा, ‘यदि बीस किलो भार की मेरी लोहे की तराजू को साधारण चूहे खाकर पचा सकते हैं तो बाज पक्षी भी सेठ के लड़के को उठाकर ले जा सकता है।’
न्यायाधीश ने सेठ से पूछा, ‘यह सब क्या मामला है?’
अंततः सेठ ने स्वयं सारी बात राजदरबार में उगल दी। न्यायाधीश ने व्यापारी के पुत्र को उसका तराजू दिलवा दिया और सेठ का पुत्र उसे वापस मिल गया।
नकलची बन्दर / पंचतंत्र Panchtantra
एक टोपी बेचने वाला था वह शहर से टोपियाँ लाकर गाँव में बेचा करता था एक दिन वह दोपहर के समय जंगल में जा रहा था थककर वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया उसने टोपियों की गठरी एक तरफ़ रख दी ठंडी हवा चल रही थी लेटते ही टोपी वाले को नींद आ गई
उस पेड़ पर कुछ बन्दर बैठे हुए थे उन्होंने देखा कि वह मनुष्य सो गया है वे पेड़ से नीचे उतर आए बन्दरों ने देखा कि मनुष्य के पास ही गठरी पड़ी है उन्होंने गठरी खोल दी उसमें बहुत-सी टोपियाँ थीं बन्दर नकलची तो होते ही हैं उन्होंने देखा कि मनुष्य ने सिर पर टोपी पहन रखी है बस हर एक बन्दर ने अपने–अपने सिर पर एक–एक टोपी पहन ली अब सारे बन्दर एक-दूसरे को देखकर हँसने लगे थोड़ी देर बाद वे सब खुशी से नाचने कूदने लगे उनमें से कुछ पेड़ पर जा बैठे।
वह आदमी जागा तो उसने बन्दरों को टोपियाँ पहने देखा उसे बड़ा गुस्सा आया उसने अपने सिर से टोपी उतार कर जमीन पर फ़ेंक दी उसने कहा --- लो यह भी ले लो बन्दर तो नकल किया ही करते हैं उन्होंने भी अपने-अपने सिर से टोपियाँ उतार कर जमीन पर पटक दीं टोपीवाले ने पत्थर मारकर बन्दरों को दूर भगा दिया फ़िर उसने टोपियाँ इकट्ठी करके गठरी में बाँध लीं गठरी सिर पर रखकर वह गाँव की ओर चल पड़ा
(सीख - नकल मे भी अक्ल की जरुरत होती है।) लेबल: नकलची बन्दर
बंदर का कलेजा / पंचतंत्र Panchtantra
किसी नदी के किनारे एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पर एक बंदर रहता था। उस पेड़ पर बड़े मीठे-रसीले फल लगते थे। बंदर उन्हें भरपेट खाता और मौज उड़ाता। वह अकेला ही मजे में दिन गुजार रहा था।
एक दिन एक मगर कहीं से निकलकर उस पेड़ के तले आया, जिस पर बंदर रहता था। पेड़ पर से बंदर ने पूछ,
'तू कौन है भाई?'
मगर ने बंदर की ऒर देखकर कहा, 'मैं मगर हूं। बड़ी दूर से आया हूं। खाने की तलाश में यूं ही धूम रहा हूं।'
बंदर ने कहा, 'यहां खाने की कोई कमी नहीं है। इस पेड़ पर ढेरों फल लगते हैं। चखकर देखो। अच्छे लगे तो मैं और दूंगा। जितने जी चाहें खाऒ।' यह कह कर बंदर ने कुछ फल तोड़कर बंदर की ऒर फेंक दिए।
मगर ने उन्हें चखकर कहा, 'वाह, ये तो बड़े मजेदार हैं।'
बंदर ने और भी ढेर से फल गिरा दिए। मगर उन्हें भी चट कर गया और बोला, 'कल फिर आउंगा। फल खिलाऒगे?'
बंदर ने कहा, 'क्यों नहीं? तुम मेरे मेहमान हो। रोज आऒ और जितने जी चाहें खाऒ।'
अगर अगले दिन आने का वादा करके चला गया। दूसरे दिन मगर फिर आया। उसने भरपेट फल खाए और बंदर के साथ गपशप करता रहा। बंदर अकेला था। एक दोस्त पाकर बहुत खुश हुआ। अब तो मगर रोज आने लगा। मगर और बंदर दोनों भरपेट फल खाते और बड़ी देर तक बातचीत करते रहते।
एक दिन यूं ही वे अपने-अपने घरों की बातें करने लगे। बातों-बातों में बंदर ने कहा कि , 'मगर भाई मैं दुनिया में अकेला हूं और तुम्हारे जैसा मित्र पाकर अपने को भाग्यशा ली समझता हूं।'
मगर ने कहा कि मैं तो अकेला नहीं हूं। घर में मेरी पत्नी है। नदी के उस पार हमारा घर है।
बंदर ने कहा, 'तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम्हारी पत्नी है। मैं भाभी के लिए भी फल भेजता।'
मगर ने कहा कि वह बड़े शौक से अपनी पत्नी के लिए ये रसीले फल ले जाएगा। जब मगर जाने लगा तो बंदर ने उसकी पत्नी के लिए बहुत से पके हुए फल तोड़कर दिए। उस दिन मगर अपनी पत्नी के लिए बंदर की यह भेंट ले गया।
मगर की पत्नी को फल बहुत पसंद आए। उसने मगर से कहा कि वह रोज इसी तरह रसीले फल लाया करे। मगर ने कहा कि वह कोशिश करेगा। धीरे-धीरे बंदर और मगर में गहरी दोस्ती हो गई। मगर रोज बंदर से मिलने जाता। जी भरकर फल खाता और अपनी पत्नी के लिए भी ले जाता।
मगर की पत्नी को फल खाना अच्छा लगता था पर अपने पति का देर से घर लौटना उसे पसंद नहीं था। वह इसे रोकना चाहती थी। एक दिन उसने कहा,
'मुझे लगता है तुम झूठ बोलते हो। भला मगर और बंदर में कहीं दोस्ती होती है? मगर तो बंदर को मारकर खा जाते हैं।'
मगर ने कहा कि, 'मैं सच बोल रहा हूं। वह बंदर बहुत भला है। हम दोनों एक-दूसरे को बहुत चाहते हैं। बेचारा रोज तुम्हारे लिए इतने सारे बढ़िया फल भेजता है। बंदर मेरा दोस्त न होता तो मैं ये फल कहां से लाता। मैं खुद तो पेड़ पर चढ़ नहीं सकता।'
मगर की पत्नी बड़ी चालाक थी। उसने सोचा,
'अगर वह बंदर रोज-रोज इतने मीठे फल खाता है तो उसका मांस कितना मीठा होगा। यदि वह मिल जाए तो कितन मजा आए।' यह सोचकर उसने मगर से कहा,
'एक दिन तुम अपने दोस्त को घर ले आऒ। मैं उससे मिलना चाहती हूं।'
मगर ने कहा, 'नहीं, नहीं, यह नहीं हो सकता है। वह तो जमीन पर रहने वाला जानवर है। पानी में तो डूब जाएगा।'
उसकी पत्नी ने कहा, 'तुम उसको न्योता तो दो। बंदर चालाक होते हैं। वह यहां आने का कोई न कोई उपाए निकाल ही लेगा।'
मगर बंदर को न्योता नहीं देना चाहता था। परंतु उसकी पत्नी रोज उससे पूछती कि बंदर कब आएगा। मगर कोई न कोई बहाना बना देता। ज्यों-ज्यों दिन गुजरने जाते बंदर के मांस के लिए मगर की पत्नी की इच्छा तीव्र होती जाती।
मगर की पत्नी ने एक तरकीब सोची। एक दिन उसने बीमारी का बहाना किया और ऐसे आंसू बहाने लगी मानो उसे बहुत दर्द हो रहा है। मगर अपनी पत्नी की बीमारी से बहुत दुखी था। वह उसके पास बैठकर बोला,
'बताऒ मैं तुम्हारे लिए क्या करूं।'
पत्नी बोली, 'मैं बहुत बीमार हूं। मैंने जब वैद्य से पूछा तो उसने बताया कि वह कहता है कि जब तक मैं बंदर का कलेजा नहीं खाउंगी तब तक मैं ठीक नहीं हो सकती हूं।
बंदर का कलेजा' मगर ने आश्चर्य से पूछा।
मगर की पत्नी ने कराहते हुए कहा, 'हां, बंदर का कलेजा। अगर तुम चाहते हो कि मैं बच जाउं तो अपने मित्र बंदर का कलेजा लाकर मुझे खिलाऒ।'
मगर ने दुखी होकर कहा, 'यह भला मैं कैसे कर सकता हूं। मेरा वही तो एक मित्र है। उसको भला मैं कैसे मार सकता हूं।'
पत्नी ने कहा, 'अच्छी बात है। अगर तुमको तुम्हारा दोस्त ज्यादा प्यारा है तो तुम उसी के पास जाकर रहो। तुम तो चाहते हो मैं मर जाउं।'
मगर संकट में फंस गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। बंदर का कलेजा लाता है तो उसका प्यारा दोस्त मारा जाएगा। नहीं लाता है तो उसकी पत्नी मर जाती है।
वह रोने लगा और बोला, 'मेरा एक ही तो दोस्त है। उसकी जान मैं कैसे ले सकता हूं।'
पत्नी ने कहा, 'तो क्या हुआ तुम मगर हो। मगर तो जीवों को मारते ही हैं।'
मगर जोर-जोर से रोने लगा। उसकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी। पर इतना वह जरूर जानता था कि पति को पत्नी की देखभाल करनी चाहिए। उसने तय किया कि वह अपनी पत्नी का जीवन जैसे भी हो बचाएगा। यह सोचकर वह बंदर के पास गया। बंदर मगर का रास्ता देख रहा था।
उसने पूछा, 'क्यों दोस्त आज इतनी देर कैसे हो गई? सब कुशल तो है न?'
मगर ने कहा, 'मेरा और मेरी पत्नी का झगड़ा हो गया है। वह कहती कि मैं तुम्हारा दोस्त नहीं हूं क्योंकि मैंने तुम्हें अपने घर नहीं बुलाया है। वह तुमसे मिलना चाहती है। उसने कहा है कि मैं तुमको अपने साथ ले जाउं। अगर नहीं चलोगे तो वह मुझसे फिर झगड़ेगी।'
बंदर से हंस कर कहा, 'बस इतनी सी बात थी। मैं भी भाभी से मिलना चाहता था। पर मैं पानी में कैसे चलूंगा? मैं तो डूब जाउंगा।'
मगर ने कहा, 'उसकी चिंता मत करो। मैं तुमको अपनी पीठ पर बैठाकर ले जाउंगा।' बंदर राजी हो गया। वह पेड़ से उतरा और उछलकर मगर की पीठ पर सवार हो गया।
नदी के बीच में पहुंचकर मगर आगे जाने की बजाए पानी में डुबकी लगाने को था कि बंदर डर गया और बोला, 'क्या कर रहे हो भाई? डुबकी लगाई तो मैं डूब जाउंगा।'
मगर ने कहा, 'मैं तो डुबकी लगाउंगा। मैं तुमको मारने ही तो लाया हूं।'
यह सुनकर बंदर संकट में पड़ गया। उसने कहा, 'क्यों भाई मुझे क्यों मारना चाहते हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?'
मगर ने कहा,
'मेरी पत्नी बीमार है। वैद्य ने उसका एक ही इलाज बताया है। यदि उसको बंदर का कलेजा मिल जाए तो वह बच जाएगी। यहां और कोई बंदर नहीं है। मैं तुम्हारा कलेजा ही अपनी पत्नी को खिलाउंगा।'पहले तो बंदर भौचक्का रह गया। फिर उसने सोचा केवल चालाकी से अपनी जान बचाई जा सकती है।
उसने कहा, 'मेरे दोस्त यह बात तुमने पहले क्यों नहीं बताई। मै तो भाभी को बचाने के लिए अपना कलेजा खुशी-खुशी दे देता। लेकिन वह तो नहीं किनारे पेड़ पर टंगा है। मैं उसे हिफाजत के लिए वहीं रखता हूं। तुमने पहले ही बता दिया होता तो मैं उसे साथ ले आता।'
'यह बात है।' मगर बोला।
'हां, जल्दी वापस चलो। कहीं तुम्हारी पत्नी की बीमारी बढ़ न जाए।'
मगर वापस पेड़ की ऒर तैरने लगा और बड़ी तेजी से वहां पहुंच गया। किनारे पहुंचे ही बंदर छलांग मारकर पेड़ पर चढ़ गया। उसने हंसकर मगर से कहा,
'जाऒ मूर्खराज अपने घर लौट जाऒ। अपनी दुष्ट पत्नी से कहना कि तुम दुनिया के सबसे बड़े मूर्ख हो। भला कोई अपना कलेजा निकालकर अलग रख सकता है।'
सीखः दोस्तों के साथ कभी भी धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए और संकट के समय अगर धैर्य के साथ सोचा जाए तो बड़ी से बड़ी मुश्किल भी दूर हो सकती है।
तीन साधु / पंचतंत्र Panchtantra
ज्ञान की खोज में एक बार तीन साधु हिमालय पर जा पहुंचे। वहां पहुंचकर तीनों साधुओं को बहुत भूख लगी। देखा तो उनके पास तो मात्र दो ही रोटियां थी। उन तीनों ने तय किया कि वो भूखे ही सो जाएंगे। ईश्वर जिसके सपने में आकर रोटी खाने का संकेत देंगे वो ही ये रोटियां खाएगा। ऐसा कहकर तीनों साधु सो गए।
आधी रात को तीनों साधु उठे और एक-दूसरे को अपना-अपना सपना सुनाने लगे। पहले साधु ने कहा-
मैं सपने में एक अनजानी जगह पहुंचा वहां बहुत शांति थी और वहां मुझे ईश्वर मिले। और उन्होंने मुझे कहा कि तुमने जीवन में सदा त्याग ही किया है। इसलिए ये रोटियां तुम्हें ही खानी चाहिए।
दूसरे साधु ने कहा कि-
मैंने सपने में देखा कि भूतकाल में तपस्या करने के कारण में महात्मा बन गया हूं और मेरी मुलाकात ईश्वर से होती है और वे मुझे कहते हैं कि लंबे समय तक कठोर तप करने के कारण रोटियों पर सबसे पहला हक तुम्हारा है, तुम्हारे मित्रों का नहीं।
अब तीसरे साधु की बारी थी उसने कहा
मैंने सपने में कुछ नहीं देखा। क्योंकी मैने वो रोटियां खा ली हैं। यह सुनकर दोनों साधु क्रोधित हो गए।
उन्होंने तीसरे साधु से पूछा-
यह निर्णय लेने से पहले तुमने हमें क्यों नहीं उठाया? तब तीसरे साधु ने कहा कैसे उठाता?
तुम दोनों तो ईश्वर से बातें कर रहे थे। लेकिन ईश्वर ने मुझे उठाया और भूखे मरने से बचा लिया।
(बिल्कुल सही कहा गया है कि जीवन-मरण का प्रश्न हो तो कोई किसी का मित्र नहीं होता व्यक्ति वही काम करता है जिससे उसका जीवन बच सके।)
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